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________________ अ०११/प्र.४ षट्खण्डागम/५८१ ग्रन्थ में 'मनुष्यिनी' या 'मानुषी' शब्द का प्रयोग केवल द्रव्यस्त्री-अर्थ में उपलब्ध होता है। अतः 'मणुसिणी' शब्द का भावस्त्री अर्थ यापनीयमत के विरुद्ध है। षट्खण्डागम में उपलब्ध इन यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का विस्तार से विवेचन आगे किया जा रहा है। सत्प्ररूपणा का ९३ वाँ सूत्र स्त्रीमुक्ति-निषेधक ___ षट्खण्डागम के सत्प्ररूपणा-अनुयोगद्वार के मनुष्यिनियों (मानुषियों) के विषय में कहे गये निम्नलिखित सूत्र स्त्रीमुक्ति-निषेधक हैं "मणुसिणीसु मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ।" (ष.ख/पु.१/१,१,९२)। "सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजद-संजद-ट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ।" (ष.ख/पु.१/१,१,९३)। अनुवाद-"मनुष्यिनियाँ (मानवस्त्रियाँ) मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों होती हैं। (सूत्र ९२)। किन्तु, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं।" (सूत्र ९३)। पूर्वशरीर के नष्ट होने पर उत्तर शरीरधारण करने के लिए जीव का नवीन जन्मस्थान में गमन होता है, उसे विग्रहगति कहते हैं। नवीन जन्मस्थान में शरीरादि की संरचना के लिए जो प्रक्रिया होती है, उसकी शक्ति उत्पन्न करनेवाले पुद्गलस्कन्धों की प्राप्ति को पर्याप्ति कहते हैं।२८ वे छह होती है : आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति।२९ इनमें से जब तक शरीरपर्याप्ति निष्पन्न नहीं होती, तब तक जीव अपर्याप्त कहलाता है और उसके २८. आहारसरीरिंदियणिस्सासुस्सासभासमणसाणं। परिणइ-वारेसु य जाओ छ च्वेव सत्तीओ॥ १३४ ॥ तस्सेव कारणाणं पुग्गलखंधाण जा हु णिप्पत्ती। सा पज्जत्ती भण्णदि छब्भेया जिणवरिंदेहिं ॥ १३५ ॥ कार्तिकेयानुप्रेक्षा। २९. "--- तेषामुपगतानां पुद्गलस्कन्धानां खलरसपर्यायैः परिणमनशक्तेनिमित्तानामाप्तिराहार पर्याप्तिः। --- तं खलभागं तिलखलोपममस्थ्यादिस्थिरावयवैस्तिलतैलसमानं रसभागं रसरुधिरवसाशुक्रा-दिद्रवावयवैरौदारिकादिशरीरत्रयपरिणमनशक्त्युपेतानां स्कन्धानामवाप्तिः For Personal & Private Use Only Jain Education Interational www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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