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________________ चतुर्थ प्रकरण षट्खण्डागम के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण यापनीयमतविरुद्ध सिद्धान्तों की उपलब्धि न केवल पूर्वोक्त यापनीयपक्ष - समर्थक हेतुओं के अनस्तित्व से षट्खण्डागम दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध होता है, अपितु उसमें जो सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं, वे भी श्वेताम्बरों और यापनीयों की मौलिक मान्यताओं के विरुद्ध हैं। उनसे यह और भी स्पष्टतया सिद्ध होता है कि वह दिगम्बराचार्यों की ही कृति है । वे यापनीयमतविरोधी सिद्धान्त इस प्रकार हैं १. षट्खण्डागम के सत्प्ररूपणा - अनुयोगद्वार का ९३ वाँ सूत्र स्त्रीमुक्ति का निषेधक है। २. षट्खण्डागम में कर्मों के आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष का प्रतिपादन गुणस्थानानुसार किया गया है। गुणस्थानानुसार बन्धमोक्षव्यवस्था यापनीय मान्यताओं के विरुद्ध है। इससे निम्नलिखित यापनीय मान्यताओं का निषेध होता है : मिथ्यादृष्टि की मुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, शुभाशुभक्रियाओं में प्रवृत्त लोगों की मुक्ति, सम्यग्दृष्टि की स्त्री पर्याय में उत्पत्ति तथा स्त्री की तीर्थंकरपदप्राप्ति । ३. षट्खण्डागम में तीर्थंकर - प्रकृतिबन्धक सोलह कारण ही स्वीकार किये गये हैं, जो यापनीयमत के विरुद्ध हैं । यापनीयमान्य श्वेताम्बर आगमों में बीस कारण माने गये हैं । ४. षट्खण्डागम में सचेल स्थविरकल्प की अस्वीकृति यापनीयमत की अस्वीकृति है। ५. षट्खण्डागम में सोलह कल्पों (स्वर्गों) की मान्यता, यापनीयों की मात्र बारह कल्पों की मान्यता के विरुद्ध है। ६. षट्खण्डागम में अनुदिश - नामक नौ स्वर्गों को मान्य किया जाना भी यापनीयमत के विरुद्ध है । यापनीयमत में इनका अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया है। ७. षट्खण्डागम में भाववेदत्रय और वेदवैषम्य स्वीकार किये गये हैं, जो यापनीयमत में अमान्य हैं। ८. षट्खण्डागम में 'मणुसिणी' शब्द का प्रयोग दिगम्बरमान्य - आगम के अनुसार द्रव्यस्त्री और भावस्त्री दोनों अर्थों में किया गया है। यापनीयसम्प्रदाय के स्त्रीनिर्वाणप्रकरण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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