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अ० ११ /प्र०३
षट्खण्डागम / ५७९ में और दिगम्बरग्रन्थों की भाषाशैली के अनुसार ही ग्रहण किया जाना चाहिए। किन्तु 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने इस दिगम्बरग्रन्थ में प्रयुक्त मणुसिणी शब्द का अर्थ इसके कर्ताओं के अभिप्राय के अनुसार ग्रहण न कर अपनी श्वेताम्बरीय और यापनीय-मान्यताओं के अनुसार ग्रहण किया है अर्थात् मणुसिणी शब्द पर स्वाभीष्ट अर्थ का आरोपण किया है।
दिगम्बरवाङ्मय में मणुसिणी शब्द द्रव्यस्त्री और भावस्त्री, दोनों अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। प्रथम गुणस्थान से लेकर पंचम गुणस्थान तक उसका प्रयोग द्रव्यस्त्री (शरीर से स्त्री) और भावस्त्री (शरीर से पुरुष और भाव से स्त्री) दोनों के अर्थ में किया गया है और छठे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक केवल भावस्त्री के अर्थ में। भावस्त्री उसे कहते हैं जो शरीर से पुरुष, किन्तु भाव से स्त्री होता है, अर्थात् पुरुष में स्त्रीवेदनामक नोकषाय का उदय उसकी भावस्त्री संज्ञा का कारण होता है। ऐसी मणुसिणी (भावस्त्री) को ही संयतगुणस्थान की प्राप्ति के योग्य बतलाया गया है।
किन्तु उक्त ग्रन्थ के लेखक ने अपने मतानुसार षट्खंडागम में प्रयुक्त मणुसिणी शब्द को केवल द्रव्यस्त्री का वाचक बतलाया है और षटखण्डागम के रचयिताओं को अभिप्रेत भावस्त्री अर्थ को अमान्य कर दिया है। इस तरह उन्होंने 'मणुसिणी' शब्द पर स्वाभीष्ट अर्थ आरोपित कर षट्खण्डागम को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने की चेष्टा की है। किन्तु छठे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक 'मणुसिणी' शब्द द्रव्यस्त्री का वाचक ही नहीं होता, इसलिए षट्खण्डागम को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया उपर्युक्त हेतु असत्य है।
इन प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि को तथाकथित उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा का अथवा यापनीयपरम्परा का आचार्य एवं षट्खण्डागम को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो हेतु उपस्थित किये हैं, वे या तो असत्य हैं, या हेत्वाभास हैं। अतः यह तथ्य यथावत् प्रतिष्ठित रहता है कि उक्त तीनों आचार्य मूलसंघीय-दिगम्बरजैन-परम्परा के ही आचार्य थे तथा षटखण्डागम दिगम्बर-परम्परा का ही ग्रन्थ है।
२७. विस्तृत विवेचन इसी अध्याय के षष्ठ प्रकरण में देखिए।
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