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५७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०११/प्र०३ "इस तरह संग्रहणी में बहुत-सी गाथाएँ ग्रन्थान्तरों से संगृहीत की गई हैं। इसी से उसकी रचना उतनी सुसम्बद्ध और सुगठित प्रतीत नहीं होती।" (जै.सा.इ. / भा. २/पृ.६७-६९)।
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संयतगुणस्थान की प्राप्ति भावस्त्री को
यापनीयपक्ष
'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के यापनीयपक्षधर लेखक का कथन है"षट्खण्डागम के यापनीयपरम्परा से सम्बन्धित होने का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं अन्यतम प्रमाण उसमें सत्प्ररूपणा नामक अनुयोगद्वार का ९३ वाँ सूत्र है, जिसमें पर्याप्त मनुष्यनी (स्त्री) में संयतगुणस्थान की उपस्थिति को स्वीकार किया गया है, जो प्रकारान्तर से स्त्रीमुक्ति का सूचक है।" (जै.ध.या.स./ पृ.१०१)। दिगम्बरपक्षं . हम देख चुके हैं कि श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों की स्थविरावलियों एवं साहित्य में, न तो षट्खण्डागम के कर्ताओं धरसेन, पुष्पदन्त एवं भूतबलि के नामों का उल्लेख है, न षट्खण्डागम का, न षट्खण्डागम की रचना के इतिहास का कोई विवरण है, न ही अर्धमागधी प्राकृत में षट्खण्डागम की कोई प्रति उपलब्ध है। तथा षट्खण्डागम की रचना यापनीयसम्प्रदाय के जन्म से लगभग ४५० वर्ष पूर्व हो चुकी थी। ये दो बहिरंग प्रमाण इस बात के पक्के सबूत हैं कि षट्खण्डागम न तो श्वेताम्बर-परम्परा का ग्रन्थ है, न यापनीयपरम्परा का, न इन दोनों की मन:कल्पित मातृपरम्परा (उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा) का।
दूसरी ओर, उक्त आचार्यों के नाम दिगम्बर-पट्टावलियों और दिगम्बरसाहित्य में अनेकत्र उपलब्ध हैं। षट्खण्डागम के कर्ताओं के रूप में उनका उल्लेख है और षट्खण्डागम की रचना का इतिहास दिगम्बरसाहित्य में वर्णित है। शौरसेनी प्राकृत में रचित षट्खण्डागम ग्रन्थ की ताड़पत्रीय प्रतियाँ मूडविद्री के दिगम्बरमठ में उपलब्ध हुई हैं। दिगम्बराचार्य वीरसेन ने उस पर टीका लिखी है। सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवर्तिक जैसी टीकाओं में षट्खण्डागम का अनुसरण किया गया है। गोम्मटसार जैसा महान् ग्रन्थ षट्खण्डागम के ही आधार पर रचा गया है। तथा षट्खण्डागम में प्रतिपादित सिद्धान्त श्वेताम्बरों और यापनीयों की मौलिक मान्यताओं के विरुद्ध हैं, जिनका वर्णन आगे किया जा रहा है। ये प्रमाण सिद्ध करते हैं कि वह दिगम्बरमत का ही ग्रन्थ है। इसलिए उसमें प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों का अर्थ दिगम्बरसिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य
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