________________
अ०११/प्र०३
षट्खण्डागम/५७७ "मूलाचार में कुलों को बतलानेवाली १६६ से १६९ तक की चार गाथाएँ इसी क्रम से संग्रहणी में हैं और उनकी क्रमसंख्या ३५३-३५६ तक है। और भी कितनी ही गाथाएँ दोनों ग्रंथों में समान हैं।
"विशेषावश्यकभाष्यकार जिनभद्रगणी सातवीं शताब्दी में हुए हैं। तिलोयपण्णत्ति की रचना उससे बहुत पहले हो चुकी थी और तिलोयपण्णत्ति में मूलाचार का निर्देश है तथा उससे कुछ गाथाएँ भी ली गई हैं। अतः मूलाचार ति० प० से भी प्राचीन है। अतः संग्रहणी में उक्त गाथाएँ मूलाचार के अन्त में स्थित 'पज्जत्तीसंगहणी' से ली गई हों, यह संभव है।
"और भी कुछ गाथाएँ संग्रहणी में ऐसी हैं, जो अन्य ग्रंथों में मिलती हैं। संग्रहणी की 'पदमक्खरं पि इक्कं' आदि १६७वीं गाथा भगवती-आराधना की ३९वीं गाथा है और 'सुत्तं गणहररइयं' आदि १६८वीं गाथा भ. आराधना की ३४वीं गाथा है। अन्तर केवल इतना है कि उसमें रइयं के स्थान पर गथिदं और कहियं पाठ है। कहिदं पाठ के साथ यही गाथा मूलाचार के पञ्चाचाराधिकार (२७७) में भी पाई जाती हैं। फिर संग्रहणी में ये दोनों गाथाएँ बिना किसी प्रकरण के स्वर्गों में उपपाद के प्रकरण में संगृहीत की गई हैं। अतः निश्चय ही इन्हें अन्यत्र से लिया गया है। भगवतीआराधना तिलोयपण्णत्ति से भी प्राचीन है।
"इसी तरह 'पुव्वस्स उ परिमाणं' आदि ३१६वीं गाथा पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि (३/३१/४२६/१६८/११) में उद्धृत है। और पूज्यपाद ५-६वीं शती के आचार्य हैं। अतः यह गाथा प्राचीन होनी चाहिये। संग्रहणी में पहली पृथिवी की स्थिति बतलाकर शेष पृथिवियों में स्थिति बतलाने के लिए एक करणसूत्र दिया है, जो इस प्रकार है
उवरिखिइठिइविसेसो सगपयरविभाग इत्थ संगुणिओ।
उवरिमखिइठिइसहिओ इच्छियपयरम्मि उक्कोसा॥ २३८॥ "संस्कृत में एक इसी प्रकार का करणसूत्र तत्त्वार्थवार्तिक (३/६) में दिया है, जो उक्त गाथा की छाया-सा जान पड़ता है
उपरिस्थितेर्विशेषः स्वप्रतरविभाजितेष्ट-संगुणितः।
उपरिपृथिवीस्थितियुतः स्वेष्टप्रतरस्थितिमहती॥ (पृ.१६८) ___ "अकलंकदेव ने अपने तत्त्वार्थवार्तिक के तीसरे अध्याय में और भी इस प्रकार के प्रमाण उद्धृत किये हैं, जो प्राकृत गाथाओं की छायारूप जान पड़ते हैं, किन्तु उनके मूल का पता नहीं चलता। संभव है उक्त संस्कृतछाया भी उसी ग्रन्थ पर से संगृहीत की गई हो, जिस पर से अन्य प्रमाण संस्कृतछाया-रूप में संकलित किये गये हैं।
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org