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________________ अ०११/प्र०४ षट्खण्डागम / ५८५ निर्देश है, किन्तु अनेक आधारों पर यह सिद्ध होता है कि समवायांग में प्रथम शती से पाँचवी शती के बीच अनेक प्रक्षेप होते रहे हैं। अतः वलभीवाचना के समय ही जीवसमास का यह विषय उसमें संकलित किया गया होगा। अन्य प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर-आगमों, जैसे-आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवकालिक, भगवती और यहाँ तक कि प्रथम शताब्दी में रचित प्रज्ञापना और जीवाभिगम में भी गुणस्थान का अभाव है।" (जै.ध.या.स./ पृ. २५१)। उन्होंने जीवसमास की भूमिका (पृ. IV) में लिखा है-“समवायांग के पश्चात् श्वेताम्बर-परम्परा में गुणस्थानों के इन चौदह नामों का निर्देश आवश्यकनियुक्ति में उपलब्ध है, किन्तु उसमें भी इन्हें गुणस्थान न कहकर जीवस्थान ही कहा गया है। ज्ञातव्य है कि नियुक्ति में भी ये गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं। आचार्य हरिभद्र (आठवीं शती) ने अपनी आवश्यकनियुक्ति की टीका में इन्हें संग्रहणीसूत्र से उद्धृत बताया है। आगमों के समान प्रकीर्णकों में भी गुणस्थान की अवधारणा का अभाव है। श्वेताम्बरपरम्परा में इन चौदह अवस्थाओं के लिए गुणस्थान शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग हमें आवश्यकचूर्णि (७ वीं शती) में मिलता है, उसमें लगभग तीन पृष्ठों में इसका विवरण दिया गया ____ माननीय डॉ० सागरमल जी के इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि श्वेताम्बर-आगमों में गुणस्थान-सिद्धान्त की मान्यता नहीं है। जिन परवर्ती श्वेताम्बरग्रन्थों में गुणस्थानों का उल्लेख मिलता है, उनमें वह प्रक्षिप्त है अर्थात् दिगम्बरग्रन्थों से ग्रहण किया गया है। श्वेताम्बरसम्प्रदाय में कर्मसिद्धान्त से सम्बन्धित सबसे प्राचीन ग्रन्थ प्रज्ञापना और जीवाभिगम हैं, जिन्हें डॉक्टर सा० प्रथम शताब्दी ई० का मानते हैं। उनमें उन्होंने गुणस्थानसिद्धान्त का अभाव बतलाया है। षट्खण्डागम-परिशीलन के कर्ता पं० बालचन्द्र जी शास्त्री ने भी पृ.२३५ पर लिखा है-"प्रज्ञापना में मनुष्यजीव-प्रज्ञापना के प्रसंग में मनुष्यों के सम्मूर्छन व गर्भोपक्रान्तिक, इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनके अन्तर्गत अनेक अवान्तर जातिभेदों को तो प्रकट किया गया है, पर गुणस्थानों व उनके आश्रय से होनेवाले उनके चौदह भेदों का कोई उल्लेख नहीं है (सूत्र ९२१३८)।" यही बात शास्त्री जी ने निम्नलिखित वक्तव्यों में कही है "षट्खण्डागम के रचयिताओं का प्रमुख ध्येय आत्महितैषी जीवों को आध्यात्मिकता की ओर आकृष्ट करके उन्हें मोक्षमार्ग में अग्रसर करना रहा है। इसीलिए उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ में आध्यात्मिक पद पर प्रतिष्ठित होने के लिए उसके सोपानस्वरूप चौदह गुणस्थानों का विचार गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से क्रमबद्ध व अतिशय व्यवस्थित रूप में किया है। यह विचार वहाँ प्रमुखता से उसके प्रथम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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