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अ०११/प्र०३
षट्खण्डागम / ५७५ यतः जिस मूलपरम्परा से षट्खण्डागम और प्रज्ञापनासूत्र विकसित हुए हैं, वह सचेलाचेलमुक्तिवादी नहीं थी, अतः इन ग्रन्थों को इस परम्परा से विकसित सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया उपर्युक्त हेतु असत्य है।
दिगम्बरग्रन्थों की गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों में दिगम्बरग्रन्थ षखण्डागम में प्रज्ञापनासूत्र, आवश्यकनियुक्ति, विशेषावश्यकभाष्य आदि श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से साम्य रखनेवाली गाथाएँ मिलती हैं। इससे यह भ्रम हो सकता है कि वे इन श्वेताम्बरीय ग्रन्थों से षट्खण्डागम में ली गयी हैं। यह भ्रम उपर्युक्त ग्रन्थों के रचनाकाल की पूर्वापरता पर दृष्टि डालने से दूर हो जाता है। पूर्व में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि षटखण्डागम की रचना ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध में हुई थी। डॉ० सागरमल जी ने प्रज्ञापनासूत्र का रचनाकाल भी ईसापूर्व प्रथम शती बतलाया है। (जै.ध.या.सं./ पृ.१०४)। अतः इन दोनों में जो समान गाथाएँ हैं, वे एक-दूसरे से गृहीत नहीं है, अपितु दोनों को अपनी एकान्तअचेलमुक्तिवादी-मूल-निर्ग्रन्थपरम्परा से प्राप्त हुई हैं।
किन्तु जो समान गाथाएँ प्रज्ञापनासूत्र में नहीं हैं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम और श्वेताम्बरग्रन्थ आवश्यकनियुक्ति, विशेषावश्यकभाष्य आदि में हैं, वे निश्चित ही षट्खण्डागम से इन ग्रन्थों में पहुंची हैं, क्योंकि जहाँ षट्खण्डागम का रचनाकाल ईसापूर्व प्रथम शताब्दी का पूर्वार्ध है, वहाँ आवश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यकभाष्य का रचनाकाल क्रमशः वि० सं० ५६२ (५०५ ई०)२४ तथा वि० सं० ६६० (६०३ ई०)२५ है। यह स्वतः सिद्ध है कि षट्खण्डागम के रचनाकाल से ५००-६०० वर्षों के बाद रचे गये ग्रन्थों की गाथाएँ षटखण्डागम में नहीं पहुँच सकतीं।
अतः षट्खण्डागम और श्वेताम्बरग्रन्थों की अनेकगाथाओं में साम्य होने से यह सिद्ध नहीं होता कि षट्खण्डागम यापनीयपरम्परा का अथवा श्वेताम्बरों और यापनीयों की पूर्वज बतलायी जानेवाली कपोलकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निग्रन्थ-परम्परा का ग्रन्थ है।
___ जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमणकृत बृहत्संग्रहणी में भी तिलोयपण्णत्ती आदि दिगम्बरग्रन्थों की गाथाएँ ग्रहण की गई हैं और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की गाथाएँ आतुरप्रत्या
२४. श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा / पृ.४३८ । २५. वही / पृष्ठ ४६१।
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