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________________ ५७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११ / प्र०३ सिद्ध है कि पुष्पदन्त और भूतबलि दिगम्बर ही थे। इस प्रकार धरसेन को उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा का तथा पुष्पदन्त और भूतबलि को यापनीयपरम्परा का आचार्य सिद्ध करने के लिए दर्शाया गया उपर्युक्त हेतु असत्य है। समानगाथाएँ एकान्त-अचेलमुक्तिवादी मूलसंघ की सम्पत्ति यापनीयपक्ष षट्खण्डागम की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बरीय ग्रन्थ प्रज्ञापनासूत्र और आवश्यकनियुक्ति की गाथाओं से मिलती-जुलती हैं। इस विषय में जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय ग्रन्थ के लेखक का कथन है कि प्रज्ञापना और षट्खण्डागम में विषयवस्तु और शैली का साम्य है। वह यही सूचित करता है कि दोनों के विकास का मूलस्रोत एक ही परम्परा है। (पृ.१०४)। वे इसके पूर्व लिखते हैं कि जिस प्रकार प्रज्ञापना में नियुक्तियों की अनेक गाथाएँ हैं, उसी प्रकार षट्खण्डागम में भी नियुक्तियों की अनेक गाथाएँ मिलती हैं, इससे ज्ञात होता है कि दोनों किसी समान परम्परा से ही विकसित हुए हैं। (पृ.१०३)। वे अंत में लिखते हैं-"यह सत्य है कि श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही उत्तरभारत की निर्ग्रन्थपरम्परा के समानरूप से उत्तराधिकारी रहे हैं और इसीलिए दोनों की आगमिक परम्परा एक ही है तथा यही उनके आगमिक ग्रन्थों की निकटता का कारण है।" (पृ.१०४)। और इस आधार पर ग्रन्थलेखक तय करते हैं कि षट्खण्डागम यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। (पृ.१०४)। दिगम्बरपक्ष मान्य ग्रन्थलेखक का यह कथन सत्य है कि षटखण्डागम तथा प्रज्ञापना दोनों ग्रन्थों के विकास का मूलस्रोत एक ही परम्परा है, इसीलिए दोनों में विषयवस्तु का साम्य है। किन्तु यह कथन सत्य नहीं है कि वह परम्परा सचेलाचेल-मुक्तिवादी थी और उस परम्परा के उत्तराधिकारी श्वेताम्बर और यापनीय थे। वह एकान्त-अचेलमुक्तिवादीनिर्ग्रन्थपरम्परा थी और उससे निकला श्वेताम्बरसंघ ही उस परम्परा के साहित्य का दूसरा समानाधिकारी था, यापनीयसंघ नहीं, क्योंकि उसकी उत्पत्ति उस परम्परा से हुई ही नहीं थी, यह पूर्व में संप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। इस कारण एकान्तअचेलमुक्तिवादी-निर्ग्रन्थपरम्परा अर्थात् दिगम्बरपरम्परा और श्वेताम्बरसंघ के साहित्य में बहुशः साम्य उपलब्ध होता है। अतः षट्खण्डागम और प्रज्ञापनासूत्र में जो विषयवस्तु की समानता है, उससे षट्खण्डागम दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ सिद्ध होता है, यापनीयपरम्परा का नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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