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________________ अ०११/प्र०३ षट्खण्डागम/५७३ महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के उत्तराधिकारी दिगम्बर और श्वेताम्बर यापनीयपक्ष पूर्वोक्त ग्रन्थ के लेखक लिखते हैं "यह स्पष्ट है कि धरसेन ने षट्खण्डागम की रचना नहीं की थी, उन्होंने तो मात्र पुष्पदन्त और भूतबलि को महाकर्मप्रकृतिप्राभृत का अध्ययन कराया था। महाकर्मप्रकृतिप्राभृत भी उत्तरभारत की अविभक्त निर्ग्रन्थपरम्परा में ही निर्मित हुआ था। --- वस्तुतः यही कर्मप्रकृतिशास्त्र आगे चलकर श्वेताम्बरपरम्परा में शिवशर्म द्वारा रचित कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों का और यापनीयपरम्परा में पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा रचित षट्खण्डागम का आधार बना है। चूँकि यापनीय और श्वेताम्बर दोनों ही इस परम्परा के उत्तराधिकारी थे, अतः यह स्वाभाविक ही था कि दोनों परम्पराओं में इस कर्मप्रकृतिशास्त्र के आधार पर ग्रन्थरचनाएँ हुईं। अतः धरसेन उत्तरभारतीय निर्ग्रन्थसंघ के ही आचार्य सिद्ध होते हैं।" (जै.ध.या.स./ पृ.९७)। दिगम्बरपक्ष यह सिद्ध किया जा चुका है कि श्वेताम्बर-यापनीयों की मातृभूत उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा नाम की कोई परम्परा ही नहीं थी। वह 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक की मनःकल्पित सृष्टि है। अतः धरसेन का अविद्यमान परम्परा से सम्बन्ध हो ही नहीं सकता। इससे सिद्ध है कि वे दिगम्बरपरम्परा के ही आचार्य थे। उत्तरभारत के एकान्त-अचेलमुक्तिवादी-मूल-निर्ग्रन्थसंघ का विभाजन होने पर केवल श्वेताम्बर शाखा उत्पन्न हुई थी, न कि श्वेताम्बर और यापनीय दो शाखाएँ। निर्ग्रन्थसंघ पूर्ववत् विद्यमान रहा, अतः श्वेताम्बरसंघ का जन्म होने पर दो संघ हो गये : निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरसंघ) और श्वेताम्बरसंघ। यह विभाजन अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् वीरनिर्वाण सं० ६२ (४६५ ई० पू०) में हुआ था। यापनीयसंघ की उत्पत्ति इस संघविभाजन से लगभग ८८५ वर्ष बाद (पाँचवीं शताब्दी ई० में) श्वेताम्बरसंघ से दक्षिणभारत में हुई थी। अतः उत्तरभारतीय एकान्तअचेलमुक्तिवादी-निर्ग्रन्थसंघ में रचित महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के अधिकारी स्वयं यह निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरसंघ) एवं श्वेताम्बरसंघ थे, यापनीयसंघ नहीं। पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्य धरसेन के साक्षात् शिष्य थे, अतः समकालीन थे। इसलिए जब गुरु यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध नहीं थे, तब उनके शिष्य कैसे हो सकते हैं? वस्तुतः उस समय यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति ही नहीं हुई थी। अतः Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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