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________________ ५७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११ / प्र०३ ५. दिगम्बरसाहित्य में भूतबलि और पुष्पदन्त के मौलिक नाम क्रमशः नरवाहन और सुबुद्धि बतलाये गये हैं । २२ कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों में इन नामों को भूतदिन्न और पुसगिरि का मौलिक नाम नहीं बतलाया गया है। इससे भी उनका एकीकरण युक्तिसंगत नहीं है । ६. नन्दीसूत्र के भूतदिन्न नागार्जुन ऋषि के शिष्य हैं, २३ जबकि भूतबलि धरसेनाचार्य । इससे बिलकुल स्पष्ट है कि दोनों सर्वथा भिन्न व्यक्ति हैं। ७. यदि पुसगिरि और भूतदिन्न षट्खण्डागम के कर्त्ता होते, तो षट्खण्डागम के कर्त्ताओं के रूप में ये ही नाम प्रसिद्ध होते, क्योंकि श्वेताम्बर स्थविरावलियों में ये ही नाम सुरक्षित हैं । और यदि श्वेताम्बर - यापनीय मातृपरम्परा में उनके स्थान पर पुष्पदन्त और भूतबलि नाम चल पड़े होते, तो वे श्वेताम्बर - स्थविरावलियों में अवश्य आते। ऐसा नहीं हुआ, इससे स्पष्ट है कि पुसगिरि और भूतदिन्न का षट्खण्डागम के कर्त्ता पुष्पदन्त और भूतबलि से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। ८. हुविष्क के शिलालेख में जो धर शब्द का उल्लेख है, वह यदि षट्खण्डागम के उपदेष्टा धरसेन का उल्लेख होता, तो श्वेताम्बरीय - स्थविरावलियों में भी धरसेन का नाम आता और श्वेताम्बरसाहित्य में उनके द्वारा पुष्पदन्त और भूतबलि को षट्खण्डागम की विषयवस्तु का उपदेश दिये जाने का भी उल्लेख अवश्य होता । किन्तु ऐसा नहीं है, इससे स्पष्ट है कि शिलालेख के धर को धरसेन और वह भी षट्खण्डागम का उपदेष्टा मानना सर्वथा निराधार है । इन युक्तियों और प्रमाणों से सिद्ध होता है कि हुविष्क के अभिलेख में उत्कीर्ण धर धरसेन नहीं हैं और श्वेताम्बर स्थविरावलियों में उल्लिखित पुसगिरि और भूतदिन्न पुष्पदन्त और भूतबलि नहीं हैं । 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने शब्दों का उलटफेर कर असत्य हेतु के द्वारा षट्खण्डागम के कर्त्ताओं को श्वेताम्बरीय स्थविरावलियों में उल्लिखित सिद्ध करने की चेष्टा की है, जिससे उन्हें स्वकल्पित श्वेताम्बर - यापनीय- मातृपरम्परा का आचार्य सिद्ध किया जा सके। यह उनके स्वाभीष्ट शब्दारोपणरूप छलवाद के द्वारा दिगम्बरग्रन्थों को यापनीय ग्रन्थ सिद्ध करने का ज्वलन्त उदाहरण है। २२. " भूतबलिप्रभावाद् भूतबलिनामा नरवाहनो मुनिर्भविष्यति । समदन्तचतुष्टयप्रभावात् सद्बुद्धिः पुष्पदन्तनामा मुनिर्भविष्यति ।" (चार समान दाँतों के प्रभाव से सद्बुद्धि ) - विबुधश्रीधर - श्रुतावतार । २३. जगभूयहियप्पगब्भे वन्देऽहं भूयदिन्नमायरिए । भवभयबुच्छेयकरे सीसे Jain Education International नागज्जुणरिसीणं ॥ ४५ ॥ नन्दीसूत्र | For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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