________________
अ०११ / प्र०३
षट्खण्डागम / ५७१
" मथुरा के हुविष्क वर्ष ४८ के एक अभिलेख में ब्रह्मदासिक कुल और उच्च नागरी शाखा के धर का उल्लेख है । लेख के आगे के अक्षरों के घिस जाने के कारण पढ़ा नहीं जा सका, हो सकता है, पूरा नाम धरसेन हो । क्योंकि कल्पसूत्र - स्थविरावली में शान्तिसेन, वज्रसेन आदि सेन - नामान्तक नाम मिलते हैं । अतः इसके धरसेन होने की सम्भावना को निरस्त नहीं किया जा सकता है। इस काल में हमें कल्पसूत्रस्थविरावली में एक पुसगिरि का भी उल्लेख मिलता है, हो सकता है, ये पुष्पदन्त हों। इसी प्रकार नन्दीसूत्र - वाचकवंश - स्थविरावली में भूतदिन्न का भी उल्लेख है । इनका समीकरण भूतबलि से किया जा सकता है।" (जै.ध. या.स./ पृ.९६) ।
दिगम्बरपक्ष
यह मान्यता निम्नलिखित कारणों से युक्ति और प्रमाण के विरुद्ध है
१. श्वेताम्बरीय स्थविरावलियों में पुसगिरि और भूतदिन्न नामों का ही उल्लेख है । पुष्पदन्त और भूतबलि नाम न तो श्वेताम्बर - स्थविरावलियों में उपलब्ध हैं, न श्वेताम्बरसाहित्य में। अतः पुसगिरि को पुष्पदन्त और भूतदिन्न को भूतबलि मानने का कोई वस्तुनिष्ठ आधार नहीं है।
२. श्वेताम्बरसाहित्य में पुसगिरि और भूतदिन्न के द्वारा षट्खण्डागम की रचना किये जाने का उल्लेख नहीं है। इसलिए इनका षट्खण्डागम के कर्त्ता के रूप में प्रसिद्ध पुष्पदन्त और भूतबलि से एकीकरण करने का कोई आधार नहीं है।
३. शब्दों में इतनी अधिक भिन्नता है कि पुसगिरि से पुष्पदन्त और भूतदिन्न से भूतबलि हो जाने में वर्ण व्यत्यय की भी कल्पना नहीं की जा सकती। और भाषाविज्ञान का ऐसा कोई नियम है नहीं, जिसके अनुसार पुसगिरि के पु को छोड़कर शेष वर्णों के स्थान में विकल्प से पुष्पदन्त आदेश तथा भूतदिन्न के दिन्न के स्थान में बलि आदेश हो जाता हो। यदि ऐसा नियम होता, तो उसके उदाहरण प्राकृतव्याकरणों में दिये जाते और वे श्वेताम्बरसाहित्य में एक ही व्यक्ति के लिए विकल्प से प्रयुक्त हुए मिलते। किन्तु ऐसा नहीं है। इससे सिद्ध है कि उपर्युक्त नामों को एक ही व्यक्ति के लिए प्रयुक्त मानने का कोई भाषावैज्ञानिक आधार भी नहीं है ।
४. शब्दों के अर्थ में भी अत्यन्त भिन्नता है । 'भूतदिन्न' का अर्थ है 'भूतदत्त' अर्थात् 'भूतों के द्वारा दिया हुआ ।' और भूतबलि का अर्थ है 'भूतों ने जिसकी पूजा की।' प्रथम शब्द के अर्थानुसार मनुष्य के द्वारा भूत पूजनीय है, दूसरे शब्द के अर्थानुसार भूतों के द्वारा मनुष्य पूजनीय है। इस तरह अर्थ की दृष्टि से भी जो शब्द परस्पर अत्यन्त भिन्न हैं, वे एक ही व्यक्ति के वाचक नहीं हो सकते ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org