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५७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०११/प्र०३ अनुवाद-"जो ज्ञान, दर्शन, तप और विनय में सदा संलग्न रहते थे, उन प्रसन्नमनवाले (रागद्वेषरहित) आर्य नन्दिल-क्षमण की मैं मस्तक झुकाकर वन्दना करता
इस गाथा का हिन्दी अनुवाद करने वाले मुनि श्री पारसकुमार जी महाराज सा० ने भी 'प्रसन्नमण' का अर्थ प्रसन्नमनवाले (रागद्वेषरहित अन्त:करणवाले) किया है।२१
इस तरह यहाँ 'पसन्नमण' का अर्थ स्पष्टतः 'प्रसन्नमनवाले' है। किन्तु 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक कहते हैं कि "उसमें वर्णव्यत्यय हुआ है, मेरी दृष्टि में उसे पण्णसमण होना चाहिए।" (जै.ध.या.स./ पृ.९५)। इस तरह मान्य ग्रन्थलेखक ने अपनी दृष्टि ( स्वाभीष्टमत ) आरोपित कर 'पसन्नमण' को 'पण्णसवण' बना दिया और श्वेताम्बरसाहित्य में 'पण्णसवण' उपाधि के प्रयोग का उदाहरण दे दिया। उन्हें श्वेताम्बरसाहित्य में कहीं सही रूप में लिखा 'पण्णसवण' शब्द नहीं मिला। इससे सिद्ध है कि श्वेताम्बर साहित्य में कहीं भी किसी मुनि के लिए 'पण्णसवण' उपाधि का प्रयोग नहीं हुआ है।
इस प्रकार न तो श्वेताम्बरसाहित्य में 'पण्णसवण' उपाधि का उल्लेख है, न ही उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ का अस्तित्व था। अतः आचार्य धरसेन को उक्त संघ से सम्बद्ध सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये दोनों हेतु असत्य हैं।
___ उक्त ग्रन्थलेखक द्वारा दिगम्बरग्रन्थों से दिये उदाहरणों से सिद्ध है कि 'पण्णसवण' (प्रज्ञाश्रमण ) एक ऋद्धि का नाम है, जो दिगम्बर ऋषियों को प्राप्त होने पर वे इस उपाधि से प्रसिद्ध किये जाते थे। आचार्य धरसेन इस उपाधि से प्रसिद्ध थे,(ष.खं./ पु.१/ प्रस्ता./ पृ.२५)। अतः सिद्ध है कि वे दिगम्बरपरम्परा से सम्बद्ध थे, अन्य किसी परम्परा से नहीं।
शाब्दिक उलटफेर युक्ति-प्रमाणविरुद्ध यापनीयपक्ष
पूर्वोक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि यापनीयपक्षी ग्रन्थलेखक ने शाब्दिक उलटफेर कर पसन्नमण को पण्णसवण बनाने की कोशिश की है। इसी प्रकार का शाब्दिक उलटफेर करके कल्पसूत्र की स्थविरावली में उल्लिखित पुसगिरि को पुष्पदन्त और भूतदिन को भूतबलि बनाने का उपक्रम किया है। वे लिखते हैं२१. नन्दीसूत्र / पृ. २३ / प्रकाशक-अ.भा. साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, सैलाना, म.प्र./
१९८४ ई.।
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