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अ०११/प्र०३
षट्खण्डागम / ५६९ तथा धरसेन को जिस उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ से सम्बद्ध कहा गया है, उसका अस्तित्व ही नहीं था, यह द्वितीय अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है। अतः धरसेन के उस अवास्तविक परम्परा से सम्बद्ध होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
दूसरी बात यह है कि यदि उस परम्परा का अस्तित्व होता और धरसेन का उससे सम्बन्ध होता, तो षट्खण्डागम की रचना का इतिहास भी श्वेताम्बरसाहित्य में उपलब्ध होता। किन्तु ऐसा नहीं है। इससे सिद्ध है कि धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि उस कपोलकल्पित परम्परा से सम्बद्ध नहीं थे।
यतः 'जोणिपाहुड' श्वेताम्बर नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है तथा धरसेन का जिस उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ से सम्बन्ध बतलाया गया है, उसका अस्तित्व ही नहीं था, अतः धरसेन को उससे सम्बन्धित सिद्ध करने के लिए उपस्थित किया गया उपर्युक्त हेतु असत्य है।
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'पण्णसवण' उपाधि का एक अस्तित्वहीन संघ से सम्बन्ध असंभव यापनीयपक्ष
भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टिटयूट पूना में उपलब्ध 'जोणिपाहुड' की प्रति में उसके कर्ता धरसेन को पण्णसवण (प्रज्ञाश्रमण) कहा गया है। यापनीयपक्षी ग्रन्थलेखक डॉ० सागरमल जी कहते हैं कि यह श्वेताम्बर-यापनीयों के जनक उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ में प्रचलित उपाधि थी। (जै.ध. या. स./९५) अतः धरसेन उत्तरभारतीय सचेलाचेल निर्ग्रन्थसंघ के आचार्य थे। दिगम्बरपक्ष
किन्तु उक्त संघ का अस्तित्व ही नहीं था, अतः उसके साथ कथित उपाधि का सम्बन्ध असंभव है। इसके अतिरिक्त ग्रन्थलेखक ने श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं के ग्रन्थों में इस उपाधि के उल्लेख का एक भी प्रमाण नहीं दिया। जो दिये हैं वे दिगम्बरपरम्परा के 'धवला' और 'तिलोयपण्णत्ती' से हैं। श्वेताम्बरग्रन्थ नन्दीसूत्र से पसण्णमण शब्द उदाहृत किया है, किन्तु इसका अर्थ तो प्रसन्नमन होता है, प्रज्ञाश्रमण नहीं। जिस गाथा में वह आया है, उस पर दृष्टिपात करें
णाणम्मि दंसणम्मि य, तवविणए णिच्चकालमुज्जुत्तं । अजं नंदिलखमणं सिरसा वंदे पसन्नमणं ॥ ३३॥ नन्दीसूत्र ।
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