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________________ ५६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११ / प्र०३ निर्वाण के पूर्व तक केवल ऐकान्तिक-अचेलमुक्तिवादी-निर्ग्रन्थसंघ का ही अस्तित्व था। उसके बाद श्वेतपटसंघ के जन्म से दो संघ हो गये : निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरसंघ) और श्वेतपटसंघ (श्वेताम्बरसंघ)। पश्चात् एक अर्धफालकसंघ का भी उदय हुआ। इनमें निग्रन्थसंघ (दिगम्बरसंघ) एकान्त-अचेलमुक्तिवादी था और है तथा श्वेतपट (श्वेताम्बर) और अर्धफालक दोनों संघ सर्वथा सचेलमुक्तिवादी थे। सचेलाचेल-उभयमुक्तिवादी कोई भी श्रमणसंघ नहीं था। उसका उदय ईसा की पाँचवीं शती के आरंभ में हुआ था, जो यापनीयसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वीर नि० सं० ६०९ के पूर्व ऐसे संघ के अस्तित्व की मान्यता सर्वथा कपोलकल्पित है। अतः जिस तथाकथित उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ का अस्तित्व ही नहीं था, धरसेन उस संघ के आचार्य कैसे हो सकते हैं? उस समय यापनीयसंघ का अस्तित्व था नहीं और श्वेताम्बरपरम्परा में धरसेन और उनके षट्खण्डागम का कोई उल्लेख नहीं है, अतः अन्यथानुपपत्ति से सिद्ध होता है कि धरसेन दिगम्बरसंघ के ही आचार्य थे। इस प्रकार सिद्ध है कि आचार्य धरसेन को कपोलकल्पित उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ का आचार्य सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया उपर्युक्त हेतु असत्य है। जोणिपाहुड दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ यापनीयपक्ष 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक का कथन है कि जोणिपाहुड ग्रन्थ का उल्लेख श्वेताम्बर-साहित्य में अधिक हुआ है, इससे सिद्ध होता है कि धरसेन उत्तरभारत के सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ से सम्बद्ध थे। (पृष्ठ ९५)। दिगम्बरपक्ष यह ग्रन्थ प्रसिद्ध विद्वान् पं० बेचरदास जी ने स्वयं भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट, पूना में जाकर देखा था और उस पर से परिचय के कुछ नोट्स गुजराती में लिए थे। दिगम्बर-ग्रन्थ होने के कारण उन्होंने बाद को वे नोट्स सदुपयोग के लिए अपने मित्र पं० नाथूराम जी प्रेमी, बम्बई को दे दिए थे। यह विवरण पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने 'अनेकान्त' पत्रिका में, १ जुलाई १९३९ के सम्पादकीय में दिया है। इससे स्पष्ट होता है कि पं० बेचरदास जी ने इस ग्रन्थ का अध्ययन करके पाया था कि यह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। आचार्य धरसेन के दिगम्बर होने का यह श्वेताम्बर विद्वान् द्वारा ही दिया गया प्रमाण है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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