________________
अ०११ / प्र० ३
षट्खण्डागम / ५६७
के प्रतिकूल एवं दिगम्बरमत के अनुकूल हैं। इनके उदाहरण आगे चतुर्थ प्रकरण में द्रष्टव्य हैं।
इन तथ्यों से यह बात दिन के समान स्पष्ट हो जाती है कि ये तीनों आचार्य दिगम्बर ही थे । अतः नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली में इनका उल्लेख सर्वथा प्रामाणिक है।
आश्चर्य यह है कि पूर्वोक्त ग्रन्थलेखक ने यापनीय- स्थविरावलियाँ उपलब्ध न होने तथा श्वेताम्बर - स्थविरावलियों में धरसेन का नाम न होने पर भी उन्हें यापनीय मान लिया, किन्तु मात्र तिलोयपण्णत्ति आदि दो-तीन दिगम्बरग्रन्थों में नाम न होने से उन्हें दिगम्बर मानने से इनकार कर दिया, जबकि नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली, इन्द्रनन्दीकृत श्रुतावतार, विबुधश्रीधरकृत श्रुतावतार तथा धवलाटीका की आचार्यपरम्परा में उनका नाम निर्दिष्ट है। जिस दिगम्बरपरम्परा के साहित्य में धरसेन का नाम अनेकत्र उपलब्ध है, उस परम्परा का उन्हें मानने से इनकार कर देना और जिस यापनीयपरम्परा के साहित्य में उनका नाम ढूँढ़े नहीं मिलता, उस परम्परा का उन्हें सिद्ध करना, यह आकाश में कुसुम खिला देने का नैपुण्य 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के मान्य लेखक में ही दिखाई देता है । यह उनके पक्षपातपूर्ण दुहरे मानदण्ड का ज्वलन्त उदाहरण है ।
धरसेन का एक अस्तित्वहीन संघ का आचार्य होना असंभव यापनीयपक्ष
दिगम्बरनन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली में उल्लिखित धरसेन के पट्टकाल एवं जोणिपाहुड की बृहट्टिप्पणिका में निर्दिष्ट इस ग्रन्थ के रचनाकाल (वीर नि० सं० ६००) के आधार पर उक्त ग्रन्थलेखक ने माना है कि धरसेन वीर नि० सं० ६०९ के पूर्व अर्थात् यापनीय सम्प्रदाय की उत्पत्ति के पूर्व दीक्षित हुए थे, अतः वे उस उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के आचार्य रहे होंगे, जिससे श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय उत्पन्न हुए थे। (जै.ध.या.स./ पृ.९२) ।
दिगम्बरपक्ष
प्रस्तुत ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि उत्तरभारत में तो क्या, भारत के किसी भी कोने में ऐसा कोई सचेलाचेल - निर्ग्रन्थसंघ विद्यमान नहीं था, जिससे श्वेताम्बर और यापनीय संघों का उद्भव हुआ हो । जम्बूस्वामी के
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org