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________________ ५६६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११/प्र०३ ३. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय ग्रन्थ के लेखक मानते हैं कि यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति से पूर्व के अर्थात् ई० सन् ८२ से पहले के सभी आचार्य श्वेताम्बरों और यापनीयों की समान मातृपरम्परा अर्थात् उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा के आचार्य थे। उनके नाम कल्पसूत्र की स्थविरावली में निर्दिष्ट हैं। किन्तु उनमें से एक का भी नाम नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली में उपलब्ध नहीं होता। ___४. स्वयं यापनीय-नन्दिसंघ से सम्बद्ध पुन्नागवृक्षमूलगण के श्रीकित्याचार्य और उनके अन्वय में हुए कूविलाचार्य, विजयकीर्ति, अर्ककीर्ति आदि के नाम उसमें अदृश्य हैं। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि नन्दिसंघ की पूर्वोक्त प्राकृतपट्टावली शतप्रतिशत दिगम्बरसंघ की है, यापनीयसंघ की नहीं। अतः उसमें आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि के नामों का उल्लेख सिद्ध करता है कि वे दिगम्बराचार्य ही थे। इस प्रकार यापनीयपक्षधर विद्वान् द्वारा आचार्य धरसेन को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु भी असत्य है। नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली सर्वथा अप्रामाणिक नहीं यद्यपि दिगम्बरनन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली में अनेक विसंगतियाँ हैं, तथापि उसमें धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि के नामों का निर्देश अप्रामाणिक नहीं है। क्योंकि ये तीनों आचार्य दिगम्बर ही थे, यह इस बात से सिद्ध है कि वीरसेन स्वामी ने धवलाटीका में तथा इन्द्रनन्दी एवं विबुधश्रीधर ने अपने-अपने 'श्रुतावतार' नामक ग्रन्थों में उन्हें दिगम्बराचार्यों की परम्परा में ही दर्शाया है। तथा श्वेताम्बरों और यापनीयों की किसी भी पट्टावली या ग्रन्थ में इनके नामों का उल्लेख नहीं है। जिस समय धवलाटीका और इन्द्रनन्दी का श्रुतावतार लिखा गया, उस समय यापनीय सम्प्रदाय अच्छी तरह फलफूल रहा था। यदि ये आचार्य उस सम्प्रदाय के होते, तो उन्हें दिगम्बराचार्य बतलाये जाने पर उनकी ओर से घोर विरोध किया जाता। किन्तु विरोध तो क्या, इन आचार्यों का नाम भी किसी यापनीयग्रन्थ या उस सम्प्रदाय के शिलालेख में उपलब्ध नहीं होता। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा उपदिष्ट और रचित षट्खण्डागम ग्रन्थ में जिनसिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है, वे भी यापनीयमत २०."... श्रीयापनीयनन्दिसङ्घ-पुन्नागवृक्षमूलगणे श्रीकित्याचार्यान्वये बहुष्वाचार्येष्वतिक्रान्तेषु --- कूविलाचार्य---विजयकीर्ति---अर्ककीर्ति---1" (जैनशिलालेखसंग्रह / माणिकचन्द्र / भा.२ / कडब लेख क्र.१२४ / पृ.१३७)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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