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________________ अ०११/प्र०२ षट्खण्डागम /५६१ ३.५. तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान षट्खण्डागम से तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित गुणस्थानों के नाम श्वेताम्बर-आगमों में उपलब्ध नहीं हैं। समवायांग में उपलब्ध हैं, किन्तु श्वेताम्बर विद्वानों ने उन्हें प्रक्षिप्त माना है। अतः यह निर्विवाद है कि तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित गुणस्थानों का आगमिक आधार षट्खण्डागम ही है। ३.६. षट्खण्डागम की अपेक्षा तत्त्वार्थसूत्र में नयविकास दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत, इन सात नयों का उल्लेख है। श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में प्रथमतः नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द इन पाँच नयों का नामनिर्देश करके आद्य नय के दो और शब्द नय के तीन भेद बतलाये गये हैं। इसे भाष्य में स्पष्ट करते हुए 'आद्य' से नैगमनय को ग्रहण कर उसके देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी इन दो भेदों का तथा 'शब्द' के साम्प्रत, समभिरूढ और एवंभूत इन तीन भेदों का निर्देश किया गया है।८ किन्तु षट्खण्डागम में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द इन पाँच नयों के अनुसार ही वर्णन मिलता है, शब्दनय के भेदभूत समभिरूढ और एवंभूत, इन दो नयों का उल्लेख कहीं उपलब्ध नहीं होता (षट्.परि./ पृ.१६६-१६७)। इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र में नयों का विकास हुआ है, अतः षट्खण्डागम उससे पूर्व की रचना है। ३.७. षट्खण्डागम की अपेक्षा तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादनशैली का विकास षट्खण्डागम (पु.१२/४, २, ८ सूत्र २-११) में निम्नलिखित भावों को सामान्य रूप से आठों कर्मों के बन्ध का प्रत्यय बतलाया गया है : प्राणातिपात आदि पाँच पाप, रात्रिभोजन, क्रोधादि चार कषाय, राग, द्वेष, मोह, प्रेम, निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान (प्रस्थ आदि माप के उपकरण), मेय (मापे जाने योग्य गेहूँ आदि), मोष (चोरी), मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग। तत्त्वार्थसूत्र (६/१०-२७) में इन भावों को इसी रूप में बन्ध का प्रत्यय निरूपित नहीं किया गया, अपितु इनसे जो ज्ञानादि के प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, केवलिश्रुतसंघ के अवर्णवाद आदि की भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें भिन्न-भिन्न कर्मों के तीव्रस्थिति-अनुभाग पूर्वक बन्ध का प्रत्यय बतलाया गया है। इससे यह सरलतया १८. "आद्य इति सूत्रक्रमप्रामाण्यान्नैगममाह। स द्विभेदो देशपरिक्षेपी सर्वपरिक्षेपी चेति। शब्दस्त्रिभेदः साम्प्रतः समभिरूढ एवम्भूत इति।" तत्त्वार्थधिगमभाष्य १/३५। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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