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५६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०११ / प्र०२
से समझ में आ जाता है कि किस प्रकार की प्रवृत्तियाँ किस कर्म के प्रमुखतया बन्ध का कारण हैं (षट्. परि. / पृ. १७७)। यह विभेदीकृत एवं सरलीकृत स्पष्टीकरण प्रतिपादनशैली के विकास का सूचक है, जो तत्त्वार्थसूत्र को षट्खण्डागम से परवर्ती साबित करता है।
ये विभिन्न प्रमाण इस बात के साक्षी हैं कि षट्खण्डागम तत्त्वार्थसूत्र से पूर्व की रचना है। इससे यह निर्णय आसानी से हो जाता है कि यतः तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल द्वितीय शताब्दी ई० का पूर्वार्ध है, अतः षट्खण्डागम की रचना उससे पूर्व हुई है। और यह पहले ही सिद्ध किया जा चुका है कि षट्खण्डागम ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध एवं ईसोत्तर प्रथम शती के पूर्वार्ध में हुए आचार्य कुन्दकुन्द से भी पहले रचा गया है, अतः यह स्वतः सिद्ध है कि वह ईसापूर्व प्रथम शती की रचना है।
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षट्खण्डागम की रचना यापनीयसंघोत्पत्ति से बहुत पहले
षट्खण्डागम ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में रचा गया था और यापनीय संघ का इतिहास नामक सप्तम अध्याय में सिद्ध किया गया है कि यापनीयसंघ की उत्पत्ति ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रथम चरण में हुई थी। इसलिए उससे लगभग साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व हुए आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि, इन तीनों के यापनीयआचार्य होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता तथा यापनीयपूर्व - उत्तरभारतीय-सचेलाचेलनिर्ग्रन्थसंघ कपोलकल्पित है, अतः उसका आचार्य होना भी बन्ध्यापुत्र के समान असंभव है । अन्यथानुपपत्ति से सिद्ध होता है कि ये तीनों मूलसंघ के अर्थात् दिगम्बर जैनपरम्परा के आचार्य थे, इसलिए इनके द्वारा उपदिष्ट और रचित षट्खण्डागम में स्त्रीमुक्ति के विधान की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उसमें संयतगुणस्थान का प्रतिपादन भावमानुषी के लिए किया गया है, द्रव्यमानुषी के लिए नहीं । तथा श्वेताम्बरग्रन्थ प्रज्ञापन और दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम में जो समान गाथाएँ हैं, वे इन दोनों परम्पराओं को अपने मूलस्रोत ऐकान्तिक अचेलमुक्तिवादी मूलसंघ से प्राप्त हुई हैं। और छठी शती ई० में रचित श्वेताम्बरीय आवश्यकनिर्युक्ति से साम्य रखनेवाली गाथाएँ षट्खण्डागम से ही आवश्यकनिर्युक्ति में पहुँची है, क्योंकि ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में रचित षट्खण्डागम में छठी शताब्दी ई० में रची गयी आवश्यकनिर्युक्ति की गाथाओं का आना असम्भव है।
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