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५६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
३.४. षट्खण्डागम के भावानुयोगद्वार का तत्त्वार्थसूत्र में संक्षेपीकरण
तत्त्वार्थसूत्र (२/१-७) में जीव के औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक, इन पाँच भावों का कथन किया गया है तथा आगे क्रमशः उनके दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेद भी बतलाये गये हैं । श्वेताम्बर - आगमों में इनका कहीं भी उल्लेख नहीं है । तत्त्वार्थसूत्र जैनागम समन्वय ( २ / १-७/पृ. २९-३३) में इनको अनुयोगद्वार के षट्भाषाधिकार-गत विस्तृत गद्यात्मक वर्णनों से समन्वित करने की चेष्टा की गयी है । किन्तु जैसा कि पूर्व में कहा गया है, 'अनुयोगद्वार' ग्रन्थ पाँचवीं शती ई० की रचना है, अतः वह उक्त सूत्रों का आधार नहीं हो सकता । षट्खण्डागम के विशेषज्ञ पं० बालचन्द्र जी शास्त्री अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ षट्खण्डागमपरिशीलन में लिखते हैं
" षट्खण्डागम में जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में सातवाँ एक स्वतंत्र भावानुयोगद्वार है । उसमें ओघ और आदेश की अपेक्षा उन भावों ( औपशमिकादि पाँच भावों) की प्ररूपणा पृथक्-पृथक् विस्तार से की गई है। ओघ से जैसे - मिथ्यादृष्टि को औदयिक, सासादनसम्यग्दृष्टि को पारिणामिक, सम्यग्मिथ्यादृष्टि को क्षायोपशमिक, असंयम को औदयिक, संयमासंयम आदि तीन को क्षायोपशमिक, चार उपशामकों को औपशमिक तथा चार क्षपकों और सयोग - अयोग केवलियों को क्षायिकभाव कहा गया है। १७
अ०११ / प्र०२
" इसी प्रकार से आगे आदेश की अपेक्षा यथाक्रम से गति - इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में भी उन भावों की प्ररूपणा की गई है।
" इस प्रकार ष० खं० के उस भावानुयोगद्वार में पृथक्-पृथक् एक-एक भाव को लेकर विशदता की दृष्टि से प्रश्नोत्तर शैली में जिन भावों की विस्तार से प्ररूपणा की गई है, वे सभी भाव संक्षेप में तत्त्वार्थसूत्र के उन सूत्रों ( २/१-७) में अन्तर्भूत
हैं।
"इस स्थिति को देखते हुए यदि यह कहा जाय कि ष० खं० के उस भावानुयोगद्वार का तत्त्वार्थसूत्र में संक्षेपीकरण किया गया है, तो असंगत नहीं होगा।" ( षट्. परि. / पृ.१६७-१६८) ।
आदरणीय पण्डित जी का यह निष्कर्ष सर्वथा युक्तिसंगत है।
१७. षट्खण्डागम / पु.५ / १,७,१-९ / पृ. १८३ - २०५ ( क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत 'स्वामित्व' अनुयोगद्वार भी द्रष्टव्य है, षट्खण्डागम / पु. ७/२,१, ३-९१ / पृ. ७-११३)।
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