SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 611
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०११/प्र०२ षट्खण्डागम /५५७ ३.१. तीर्थंकर-प्रकृति-बन्ध के सोलह कारण षट्खण्डागम से तत्त्वार्थसूत्र में जो तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध के सोलह कारण बतलाये गये हैं, वे षट्-खण्डागम से ही गृहीत हैं, क्योंकि श्वेताम्बर-आगमग्रन्थ ज्ञातृधर्मकथाङ्ग में बीस कारणों का वर्णन है। सोलह कारण किसी भी श्वेताम्बरग्रन्थ में निर्दिष्ट नहीं है, दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम में ही सर्वप्रथम उनका उल्लेख मिलता है। इससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र में उक्त सोलह कारण षट्खण्डागम से ही अनुकृत किये गये हैं, अतः षट्खण्डागम तत्त्वार्थसूत्र से प्राचीन है। इन सोलह और बीस कारणों का वर्णन करनेवाले सूत्र इसी अध्याय के चतुर्थप्रकरण में द्रष्टव्य हैं। जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय ग्रन्थ के लेखकमहोदय इस सत्य को स्वीकार करने में समर्थ नहीं हुए , इसलिए इसका अपलाप करने के लिए उन्होंने कल्पना का सहारा लिया और कहा-"यह भी सम्भव है कि उमास्वाति की उच्च नागर शाखा प्रारम्भ में १६ कारण ही मानती हो।" (जै.ध.या.स./पृ.३३)। और अन्त में वे लिखते हैं-"तीर्थंकरनामकर्म-बन्ध के बीस कारण हैं, यह अवधारणा आगमकाल में नहीं, नियुक्तिकाल में स्थिर हुई है और वहीं से ज्ञाताधर्मकथा में डाली गयी है।"(जै.ध.या.स./ पृ.३३२)। किन्तु ग्रन्थलेखकमहोदय की उपर्युक्त पहली कल्पना और दूसरी स्थापना प्रमाण प्रस्तुत करने पर ही सत्य सिद्ध हो सकती थीं, जो उन्होंने प्रस्तुत नहीं किये। इससे सिद्ध है कि वे अप्रामाणिक हैं। दूसरे, यह मान भी लिया जाए कि बीस कारणोंवाली अवधारणा नियुक्तिकाल में स्थिर हुई हो और उसी समय ज्ञाताधर्मकथा में प्रक्षिप्त हुई हो, तथापि किसी भी श्वेताम्बर-आगम में तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध के सोलह कारणों का उल्लेख नहीं है। यह इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित सोलह कारणों का आधार श्वेताम्बर आगम नहीं हैं, अपितु दिगम्बर-आगमग्रन्थ षट्खण्डागम है। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि तत्त्वार्थसूत्र के अनेक सूत्रों की रचना षट्खण्डागम के आधार पर हुई है। (देखिये, अगले शीर्षक)। ३.२. गुणश्रेणीनिर्जरा के दस स्थान षट्खण्डागम से तत्त्वार्थसूत्र (९/४५) में गुणश्रेणिनिर्जरा के जिन दस स्थानों का निर्देश है, वे भी षट्खण्डागम से ही ग्रहण किये गये हैं, क्योंकि श्वेताम्बरपरम्परा के किसी भी आगमग्रन्थ में इनका वर्णन नहीं है। श्वेताम्बर-आचारांगनियुक्ति में गुणश्रेणिनिर्जरा-प्रतिपादक 'सम्मत्तुप्पत्ती सावए' इत्यादि दो गाथाएँ मिलती हैं, वे भी षट्खण्डागम से ही अपनायी गयी हैं। इसका विस्तार से प्रतिपादन दशम अध्याय के पञ्चम प्रकरण में किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy