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________________ ५५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११/प्र०२ के आधार पर हुई है। इससे तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध होता है। डॉक्टर सा० को यह स्वीकार्य नहीं था। अतः इसे असम्भव साबित करने के लिए उन्होंने दो कपोलकल्पनाओं को जन्म दिया। वे हैं-गुणस्थानसिद्धान्त और सप्तभंगी के विकसित होने की कल्पनाएँ। डॉक्टर सा० का कथन है कि विक्रम की तीसरी-चौथी शताब्दी में रचित तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान-सिद्धान्त और सप्तभंगी की चर्चा नहीं है, किन्तु षट्खण्डागम का निरूपण तो गुणस्थानसिद्धान्त पर ही आधारित है । (जै.ध.या.स./ पृ.२४८ - २४९, २५२)। इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक गुणस्थानसिद्धान्त विकसित नहीं हुआ था। अतः तत्त्वार्थसूत्र षट्खण्डागम से पूर्ववर्ती है। तत्त्वार्थसूत्र की रचना विक्रम की तीसरी-चौथी शताब्दी में हुई थी, इसलिए षट्खण्डागम का रचनाकाल विक्रम की पाँचवीं शताब्दी घटित होता है। (गुण. सिद्धा.: एक विश्ले./पृ.४)। डॉक्टर सा० के इस मत की चर्चा विस्तार से आचार्य कुन्दकुन्द का समय नामक अध्याय में की जा चुकी है और वहाँ सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है कि गुणस्थानसिद्धान्त और सप्तभंगीनय के विकसित होने की मान्यता सर्वथा कपोलकल्पित है। ये दोनों सिद्धान्त भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट हैं और गुरु-परम्परा से आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि, कुन्दकुन्द और तत्त्वार्थसूत्रकार को प्राप्त हुए थे। अतः इन्हें तत्त्वार्थसूत्र की रचना के बाद विकसित हुआ मानकर षट्खण्डागम तथा समयसार आदि को तत्त्वार्थसूत्र से परवर्ती (विक्रम की छठी शताब्दी का) सिद्ध करने का प्रयास व्यर्थ है। तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई० है, यह आचार्य कुन्दकुन्द का समय नामक अध्याय में प्रतिपादित किया जा चुका है। और उसकी रचना षट्खण्डागम तथा कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के आधार पर हुई है, अतः षटखण्डागम तत्त्वार्थसूत्र से प्राचीन षट्खण्डागम के तत्त्वार्थसूत्र से प्राचीन होने के प्रमाण आचार्य कुन्दकुन्द का समय नामक दशम अध्याय ६ में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि वे तत्त्वार्थसूत्रकार से पूर्ववर्ती हैं तथा प्रस्तुत अध्याय के इस द्वितीय प्रकरण के शीर्षक क्र. १ के नीचे इस तथ्य के प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं कि षट्खण्डागम की रचना कुन्दकुन्द से पहले हुई है। इससे यह स्वतः सिद्ध होता है कि षट्खण्डागम तत्त्वार्थसूत्र से प्राचीन है। इसकी पुष्टि अन्य अनेक प्रमाणों से भी होती है, जो इस प्रकार हैं १६. देखिए , अध्याय १०/ प्रकरण १/ शीर्षक ४.१, ४.२, ४.३, ४.४ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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