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५५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०११/प्र०२. एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन्। गुरुपरिपाट्या ज्ञातः सिद्धान्तः कुण्डकुन्दपुरे॥ १६०॥ श्रीपद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाणः।
ग्रन्थपरिकर्मका षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य॥ १६१॥ ___ अनुवाद-"इस प्रकार द्रव्य और भाव रूप से आते हुए दोनों सिद्धान्तग्रन्थों को कुण्डकुन्दपुर में श्री पद्मनन्दिमुनि ने गुरुपरम्परा से अधिगत किया और उन्होंने भी छह खण्डों में से आदि के तीन खण्डों पर बारह हजार श्लोक-प्रमाण परिकर्म नामक ग्रन्थ रचा।"
विबुधश्रीधर ने भी 'श्रुतावतार' नामक प्रकरण में बतलाया है कि उक्त दोनों सिद्धान्त-ग्रन्थों का ज्ञान सूरिपरम्परा से आचार्य कुन्दकुन्द को प्राप्त हुआ था और उनसे पढ़कर कुन्दकीर्ति नाम के मुनि ने षट्खण्डागम पर 'परिकर्म' नामक ग्रन्थ का निर्माण किया।१ यद्यपि बिबुधश्रीधर ने कुन्दकुन्द को 'परिकर्म' ग्रन्थ का कर्ता नहीं कहा, तथापि षट्खण्डागम और कसायपाहुड का ज्ञाता बंतलाया है। __इन दो ग्रन्थकर्ताओं के वचनों से ज्ञात होता है कि षट्खण्डागम और कसायपाहुड की रचना आचार्य कुन्दकुन्द के पूर्व हुई थी।
डॉ० ए० एन० उपाध्ये (प्र.सा./ प्रस्ता./ पृ.१७) और पं० बालचन्द्र जी शास्त्री (षट्.परि./ पृ.३३८-३४०) इन कथनों को विश्वसनीय नहीं मानते। किन्तु षट्खण्डागम (पुस्तक १) की प्रस्तावना में प्रो० हीरालाल जी जैन लिखते हैं
___ "षट्खण्डागम के रचनाकाल पर कुछ प्रकाश कुन्दकुन्दाचार्य के सम्बन्ध से भी पड़ता है। इन्द्रनन्दि ने श्रुतावतार में कहा है कि जब कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत दोनों पुस्तकारूढ़ हो चुके, तब कोण्डकुन्दपुर में पद्मनन्दि-मुनि ने, जिन्हें सिद्धान्त का ज्ञान गुरु-परिपाटी से मिला था, उन छह खण्डों में से प्रथम तीन खण्डों पर परिकर्म नामक बारह हजार श्लोक-प्रमाण टीकाग्रन्थ रचा। पद्मनन्दी कुन्दकुन्दाचार्य का भी नाम था और श्रुतावतार में कोण्डकुन्दपुर का उल्लेख आने से इसमें सन्देह नहीं रहता कि यहाँ उन्हीं से अभिप्राय है। यद्यपि प्रो० उपाध्ये कुन्दकुन्द के ऐसे किसी ग्रन्थ की रचना की बात को प्रामाणिक नहीं स्वीकार करते, क्योंकि उन्हें धवला और जयधवला में इसका कोई संकेत नहीं मिला। किन्तु कुन्दकुन्द के सिद्धान्तग्रंथों पर टीका बनाने
११. "इति सूरिपरम्परया द्विविधसिद्धान्तो व्रजन् मुनीन्द्रकुन्दकुन्दाचार्यसमीपे सिद्धान्तं ज्ञात्वा
कुन्दकीर्तिनामा षट्खण्डानां मध्ये प्रथमत्वे खण्डानां द्वादशसहस्रप्रमितं परिकर्मनामशास्त्रं करिष्यति।" विबुधश्रीधरकृत 'श्रुतावतार'/ सिद्धान्तसारादिसंग्रह / पृष्ठ ३१८ ।
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