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अ०११/प्र०२
षट्खण्डागम / ५५१ दोनों की प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं, क्योंकि ये दोनों एक-दूसरे से स्वतंत्र आधार पर लिखे हुए प्रतीत होते है।" ८ निष्कर्ष यह कि 'जोणिपाहुड' ग्रन्थ के रचनाकाल की दृष्टि से आचार्य धरसेन का स्थितिकाल वीर निर्वाण संवत् ६०० अर्थात् (६००-५२७) ७३ ई० के लगभग निश्चित होता है।
'प्रज्ञापनासूत्र' की प्रस्तावना के लेखकों, पं० दलसुखभाई मालवणिया एवं पं० अमृतलाल मोहनलाल भोजक ने, षट्खण्डागम का रचनाकाल वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् विक्रम संवत् की द्वितीय शती के लगभग ही स्वीकार किया है, जैसा कि षटखण्डागम पुस्तक १ की प्रस्तावना (पृ.८) में निर्धारित किया गया है।
डॉ० नेमिचन्द्र जी शास्त्री, ज्योतिषाचार्य लिखते हैं-"प्राकृत पट्टावली के अनुसार वीरनिर्वाण संवत् ६१४-६८३ के बीच धरसेन का समय होना चाहिए। पट्टावली में धरसेन का आचार्यकाल १९ वर्ष बतलाया है। इससे सिद्ध होता है कि वीरनिर्वाण संवत् ६३३ तक धरसेन जीवित रहे हैं और वीर निर्वाण संवत् ६३० या ६३१ में पुष्पदन्त और भूतबलि को श्रुत का अध्ययन कराया है।"९ इस आधार पर धरसेन का समय ई० सन् ७३-१०६ ई० तक आता है। किन्तु 'आचार्य कुन्दकुन्द का समय' नामक पूर्व अध्याय में अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया गया है कि आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर ईसा की प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध तक विद्यमान थे और अनेक प्रमाणों से यह साबित होता है कि उन्होंने षट्खण्डागम पर 'परिकर्म' नामक ग्रन्थ लिखा था। अतः षट्खण्डागम कुन्दकुन्द से पूर्व की अर्थात् ई० पू० प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध की रचना है, यह सिद्ध होता है। चूंकि पुष्पदन्त
और भूतबलि, धरसेन के समकालीन थे, अतः उनका स्थितिकाल भी लगभग यही था।° षट्खण्डागम के कुन्दकुन्द से पूर्व रचे जाने के प्रमाण आगे प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
षट्खण्डागम की रचना कुन्दकुन्द से पूर्व आचार्य इन्द्रनन्दी ने अपने 'श्रुतावतार' नामक प्रकरण में श्रुत के अवतार का इतिहास निबद्ध किया है। उसमें उन्होंने उपलब्ध षट्खण्डागम तथा कसायपाहुड नामक सिद्धान्तग्रन्थों के रचे जाने का इतिवृत्त देकर लिखा है
९. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा / खण्ड २ / पृ.४६ । १०. वही / खण्ड २ / पृ.५२-५३, ५७।
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