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द्वितीय प्रकरण षट्खण्डागम का रचनाकाल : ई. पू. प्रथमशती का पूर्वार्ध
षट्खण्डागम की रचना आचार्य धरसेन से प्राप्त उपदेश के आधार पर आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने की थी। धवला, जयधवला टीकाओं एवं इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार के उल्लेखों के अनुसार आचार्य धरसेन का स्थितिकाल महावीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष बाद आता है। नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली में उनकी स्थिति वीरनिर्वाण संवत् ६१४ से ६८३ के बीच बतलाई गई है।
एक जोणिपाहुड (योनिप्राभृत) नाम का ग्रन्थ भी धरसेन द्वारा रचित प्राप्त होता है। इसकी एक प्रति भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट, पूना में है। "प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् पं० बेचरदास जी ने इस ग्रन्थ-प्रति का वहाँ पर अवलोकन किया था और उस पर से परिचय के कुछ नोट्स गुजराती में लिये थे। दिगम्बरग्रन्थ होने के कारण उन्होंने बाद को वे नोट्स सदुपयोग के लिए सुहृद्वर पं० नाथूराम जी प्रेमी, बम्बई को दिये थे।"३ किसी आचार्य द्वारा संवत् १५५६ में लिखित बृहट्टिप्पणिका नामक ग्रन्थसूची में इसे वीरनिर्वाण से ६०० वर्ष पश्चात् रचित कहा गया है-"योनिप्राभृतं वीरात् ६०० धारसेनम्" किन्तु ग्रन्थ में इसके कर्ता का नाम पण्हसवण ऋषि उल्लिखित है और कहा गया है कि उन्होंने यह ग्रन्थ अपने शिष्य भूतबलि और पुष्पदन्त के लिए लिखा था। पण्हसवण का अर्थ है 'प्रज्ञाश्रमण', यह एक ऋद्धि का नाम है। सम्भवतः धरसेनाचार्य इस ऋद्धि के धारी थे, इसलिए उन्हें 'प्रज्ञाश्रमण' कहा गया है। षट्खण्डागम में प्रज्ञाश्रमणों को नमस्कार किया गया है-'णमो पण्णसमणाणं। धवलाटीका में भी 'जोणिपाहुड' का उल्लेख किया गया है-"जोणिपाहुडे भणिद-मंततंतसत्तीओ पोग्गलाणुभागो त्ति घेत्तव्यो।"८ "नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली के अनुसार धरसेन का काल वीरनिर्वाण से ६१४ वर्ष पश्चात् पड़ता है, अतः अपने पट्टकाल से १४ वर्ष पूर्व उन्होंने यह ग्रन्थ रचा होगा। इस समीकरण से प्राकृतपट्टावली और बृहट्टिप्पणिका के संकेत, इन
१. डॉ. हीरालाल जैन : षट्खण्डागम / पु.१/ प्रस्तावना / पृ.२० । २. वही/ पृ.२५। ३. पं. जुगलकिशोर मुख्तार : सम्पादकीय / 'अनेकान्त'/१ जुलाई, १९३९ / पृ.४८६ । ४. वही / पृ.४८५। ५. वही / पृ.४८७। ६. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा / खण्ड २/ पृ.४६ । ७. षट्खण्डागम / पु.९/४,१,१८ / पृ.८१ । ८. षट्खण्डागम / पु. १/प्रस्तावना / पृ.२६ ।
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