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अ०११/प्र०१
षट्खण्डागम/५४९
इन मान्य किये गये विभिन्न रचनाकालों में से कोई एक ही सत्य हो सकता है, किन्तु मान्य विद्वान् ने बलिष्ठ प्रमाणों के द्वारा शेष को निरस्त कर किसी एक को निश्चित नहीं किया। अतः एक-दूसरे से बाधित होकर सभी अप्रामाणिक सिद्ध हो जाते हैं।
६. मान्य विद्वान् ने यापनीयसंघ का उदयकाल बोटिककथा एवं दर्शनसार के अनुसार ई० सन् ८२ (वीर नि० सं० ६०९, विक्रम सं० १३९) निर्धारित किया है। दिगम्बर-नन्दिसंघ को यापनीय-नन्दिसंघ मानकर उसकी प्राकृतपट्टावली के अनुसार ई० सन् ५७ (वीर नि० सं० ५८४, देखिए ऊपर) तथा मृगेशवर्मा के हल्सी अभिलेख (क्र.९९) के आधार पर ई० सन् ४९० से कुछ पूर्व माना है। (पृ. ३५७, ३७३)। किन्तु अन्तिमरूप से कोई एक काल निर्धारित नहीं किया। इससे भी उनकी अनिश्चयात्मक मनोदशा सूचित होती है।
७. उक्त ग्रन्थ के पृष्ठ ९० और ९२ पर मान्य विद्वान् तिलोयपण्णत्ती और हरिवंशपुराण को दिगम्बरग्रन्थ मानते हुए कहते हैं कि उनमें वर्णित आचार्यपरम्परा में धरसेन का नाम न होने से सिद्ध होता है कि वे दिगम्बर नहीं थे। किन्तु आगे वे इन्हीं ग्रन्थों को यापनीयपरम्परा का सिद्ध करने के लिए हेत्वाभासों की बौछार लगा देते हैं। यह भी उनकी अनिश्चयात्मक मनःस्थिति का एक प्रमाण है।
यहाँ हम देखते हैं कि यापनीय-पक्षधर ग्रन्थलेखक के मन में सबसे बड़ी विप्रतिपत्ति या अनिश्चय आचार्य धरसेन के समय और सम्प्रदाय के विषय में है। अतः इन दोनों बातों का निश्चय हो जाने पर सभी प्रश्नों का समाधान हो सकता है, अर्थात् यह निर्णय हो सकता है कि मान्य ग्रन्थलेखक ने षट्खण्डागम को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे वास्तविक हैं या कपोलकल्पित? यद्यपि धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि, तीनों आचार्य उपदेष्टा और उपदेश्य के रूप में आमने-सामने थे, अतः समकालीन थे, तथापि उपर्युक्त यापनीय-पक्षधर ग्रन्थलेखक ने उनके काल में लगभग दो-तीन सौ वर्ष का अन्तर पैदा करने की कोशिश की है, जैसा कि उनके पूर्वोद्धृत वचन से स्पष्ट है। अतः षट्खण्डागम का रचनाकाल निर्णीत हो जाने पर इस विप्रतिपत्ति का भी निवारण हो जायेगा। इसलिए सर्वप्रथम षट्खण्डागम के रचनाकाल का निर्णय किया जा रहा है।
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