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________________ ५४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११/प्र०१ के माध्यम से ही इनका और इनके ग्रन्थ जोणिपाहुड का उल्लेख धवला में हुआ है।" (पृ.९५)। यहाँ मान्य विद्वान् ने इस कथन का खण्डन नहीं किया है कि धरसेन ने जोणिपाहुड ग्रन्थ अपने शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि के लिए लिखा था, जिससे सिद्ध होता है कि यह तथ्य उन्हें स्वीकार्य है और इसके स्वीकार्य होने से यह भी स्वीकृत हो जाता है कि ये दोनों शिष्य अपने गुरु धरसेन के समकालीन थे अर्थात् वे यापनीयसंघ की उत्पत्ति (वीर नि० सं० ६०९) से पूर्व विद्यमान थे, अतः वे अपने गुरु के ही समान यापनीय नहीं थे। किन्तु मान्य विद्वान् उक्त ग्रन्थ के पृष्ठ १०४ पर लिखते हैं कि "षट्खण्डागम ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी के पूर्व की रचना नहीं है।" ऐसा लिखकर उन्होंने यह सिद्ध करने की कोशिश की है उसके रचयिता पुष्पदन्त और भूतबलि अपने गुरु धरसेन से दो-तीन सौ वर्ष बाद हुए थे और उस समय यापनीय-सम्प्रदाय का उदय हो चुका था, अतः वे यापनीयपरम्परा के आचार्य थे। इन दोनों मान्यताओं में भी अन्तर्विरोध है। इनमें से कोई एक ही सत्य हो सकती है। अर्थात् पुष्पदन्त और भूतबलि या तो अपने गुरु धरसेन के समकालीन (ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के) होने से तथाकथित उत्तरभारतीय निर्ग्रन्थ (सचेलाचेल) संघ से ही सम्बद्ध हो सकते हैं या उत्तरकालीन होने से यापनीयसंघ से। किन्तु मान्य विद्वान् ने उन्हें इनमें से किसी एक संघ से सम्बद्ध सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं किया, जिससे स्पष्ट है कि ऐसा करने के लिए उनके पास कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं था, अतः उक्त आचार्य न तो तथाकथित उत्तरभारतीय सचेलाचेल संघ से सम्बद्ध थे, न यापनीयसंघ से, अपितु वे शुद्ध दिगम्बर थे। ५. मान्य विद्वान् ने मथुरा के हुविष्ककालीन अभिलेख तथा कल्पसूत्र और नन्दिसूत्र की स्थविरावलियों में निर्दिष्ट धर, पुसगिरि और भूतदिन्न नामों को धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि का ही परिवर्तित रूप मानकर तथा जोणिपाहुड के रचनाकाल के आधार पर इन तीनों आचार्यों का अस्तित्व वीर नि० सं० ६०९ के पूर्व मानते हुए षट्खण्डागम का रचनाकाल यही स्वीकार किया है। उधर उपर्युक्त ग्रन्थ के पृष्ठ ९५-९७ पर धवलाटीका (ष.खं./ पु.१ / १,१,१/ पृ.६७-६८) के उल्लेखानुसार चौथी शताब्दी ई० निर्धारित किया है। तथा गुणस्थान-विकासवाद की स्वकल्पित मान्यतानुसार पाँचवी शताब्दी ई० में ले गये हैं (जै.ध.या.स./पृ. २४८-२५२)। और प्रो० एम० ए० ढाकी का यह मत भी स्वीकार कर लिया है कि षटखण्डागम की रचना पाँचवीं-छठवीं शताब्दी ई० में हुई थी। इस प्रकार षट्खण्डागम के रचनाकाल के विषय में मान्य विद्वान् की मनोदशा महान् अन्तर्विरोधों एवं अनिश्चय से भरी हुई है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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