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________________ अ०११/प्र.१ षट्खण्डागम/५४७ कल्पसूत्र-स्थविरावली में शान्तिसेन, वज्रसेन आदि सेन-नामान्तक नाम मिलते हैं। अतः इसके धरसेन होने की सम्भावना को निरस्त नहीं किया जा सकता है। इस काल में हमें कल्पसूत्र-स्थविरावली में एक पुसगिरि का भी उल्लेख मिलता है। हो सकता है, ये पुष्पदन्त हों। इसी प्रकार नन्दीसूत्र-वाचकवंश-स्थविरावली में भूतदिन्न का भी उल्लेख है। इनका समीकरण भूतबलि से किया जा सकता है।" यहाँ मान्य विद्वान् ने पुष्पदन्त और भूतबलि को भी स्थविरावलियों के अनुसार ईसवी पूर्व प्रथम शताब्दी का मानते हुए उनके उत्तरभारतीय सचेलाचेल परम्परा से सम्बद्ध होने की संभावना व्यक्त की है, किन्तु उपर्युक्त ग्रन्थ के पृष्ठ १०१-१०२ पर षट्खण्डागम की विषयवस्तु ('संजद' पद की उपस्थिति) के आधार पर उन्हें ईसा की द्वितीय-तृतीय शताब्दी से पूर्व का स्वीकार न करते हुए यापनीयसंघ से सम्बद्ध सिद्ध करने की चेष्टा की है। इन मन्तव्यों में भी परस्पर-विरोध है। दोनों में से कोई एक ही सत्य हो सकता है। किन्तु मान्य विद्वान् ने उनमें से किसी एक को सत्य और दूसरे को असत्य सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं किया है, जिससे स्पष्ट है उनके पास पुष्पदन्त और भूतबलि को न तो उत्तरभारत की तथाकथित (सचेलाचेल) निर्ग्रन्थ परम्परा का सिद्ध करनेवाले प्रमाण हैं, न यापनीयपरम्परा का सिद्ध करनेवाले, जिससे निश्चित होता है कि वे भी दिगम्बरपरम्परा से ही सम्बद्ध थे। ___४. मान्य विद्वान् उपर्युक्त ग्रन्थ के पृष्ठ ९३ पर लिखते हैं-"धरसेन के सन्दर्भ में जो अन्य ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं, उनमें दो का उल्लेख विद्वानों ने किया है। सर्वप्रथम आचार्य धरसेन को जोणिपाहुड (योनिप्राभृत) नामक निमित्तशास्त्र के एक अपूर्व ग्रन्थ का रचयिता माना जाता है। इस ग्रन्थ की एक प्रति 'भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पूना' में है। पं० बेचरदास जी ने इस प्रति से जो नोट्स लिखे थे, उनके आधर पर यह ग्रन्थ पण्णसवन मुनि ने अपने शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि के लिए लिखा था। वि० सं० १५५६ में लिखी गयी बृहट्टिप्पणिका में इस ग्रन्थ को वीर निर्वाण के ६०० वर्ष पश्चात् धारसेन (धरसेन) द्वारा रचित माना गया मान्य विद्वान् आगे लिखते हैं-"जहाँ दिगम्बरपरम्परा में मात्र धवला में उनके इस ग्रन्थ का उल्लेख है, वहाँ श्वेताम्बरपरम्परा में छठी शताब्दी से लेकर १५वीं शताब्दी तक अनेक ग्रन्थों में उनके इस ग्रन्थ के निरन्तर उल्लेख पाये जाते हैं। इससे यह निश्चित होता है कि धरसेन और उनका ग्रन्थ योनिप्राभृत (जोणिपाहुड) श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य रहा है। अतः वे उत्तरभारत की उसी निर्ग्रन्थपरम्परा से सम्बद्ध होंगे, जिसके ग्रन्थों का उत्तराधिकार श्वेताम्बर और यापनीय दोनों को समानरूप से मिला है। यापनीयों Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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