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________________ ५४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११/प्र.१ २. मान्य विद्वान् 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के पृष्ठ ९२ पर लिखते हैं-"यदि कुछ समय के लिए नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली को प्रमाण मान लें, तो उससे यह सिद्ध होता है कि धरसेन वीरनिर्वाण संवत् ६३३ में दिवंगत हुए। इसमें उनका आचार्यकाल १९ वर्ष माना गया है, अतः वे वीर निर्वाण संवत् ६१४ में आचार्य हुए। यदि वे अपनी आयु के ५०वें वर्ष में आचार्य हुए हों, तो यह माना जा सकता है कि लगभग उसके ३० वर्ष पूर्व वे दीक्षित हुए होंगे। अतः उनकी दीक्षा का समय वीरनिर्वाण संवत् ५८४ (ई०सन् ५७) के आस-पास हो सकता है। अतः धरसेन संघभेद की घटना के, जो वीर निर्वाण संवत् ६०९ में घटित हुई थी, पूर्व ही दीक्षित हो चुके थे। निष्कर्ष यह है कि वे संघभेद की घटना के पूर्व अविभक्त उत्तरभारतीय निर्ग्रन्थ (सचेलाचेल) परम्परा के किसी गण के आचार्य रहे होंगे।" किन्तु अगले ही पृष्ठ (९३) पर वे इसके ठीक विपरीत यह लिखते हैं-"पुनः जिस नन्दिसंघ की पट्टावली को आधार बनाकर यह चर्चा की जा रही है, वह नन्दिसंघ भी यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध रहा है। कणप (कडब) के शक संवत् ७३५, ईसवी सन् ८१३ के एक अभिलेख में श्री यापनीय-नन्दिसंघ-पुन्नागवृक्षमूलगण ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। यापनीय और नन्दिसंघ की इस एकरूपता और नन्दिसंघ की पट्टावली में धरसेन के उल्लेख से यही सिद्ध होता है कि धरसेन यापनीयसंघ से सम्बद्ध रहे हैं।" यहाँ एक ही नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली के आधार पर वीरनिर्वाण संवत् ५८४ में उत्तर भारत की तथाकथित अविभक्त निर्ग्रन्थ (सचेलाचेल) परम्परा का भी अस्तित्व बतलाया गया है और उसके विभाजन से उत्पन्न होनेवाले यापनीयसंघ का भी, क्योंकि धरसेन को दोनों से सम्बद्ध प्रतिपादित किया गया है। यह परस्परविरुद्ध है। इनमें से कोई एक ही बात सत्य हो सकती है। किन्तु दोनों में से किसी एक को सत्य सिद्ध करनेवाले प्रमाण मान्य विद्वान् के पास नहीं हैं। इससे सिद्ध है कि वीर नि० सं० ५८४ में न तो उत्तरभारत के तथाकथित (सचेलाचेल) निर्ग्रन्थसंघ का अस्तित्व था, न यापनीयसंघ का। इसलिए यह भी सिद्ध है कि धरसेन न तो तथाकथित उत्तरभारतीय निर्ग्रन्थ (सचेलाचेल) संघ से सम्बद्ध थे, न यापनीयसंघ से। फलस्वरूप यह स्वतः सिद्ध होता है कि वे दिगम्बरसंघ से सम्बद्ध थे। ३. मान्य विद्वान् ने अपने ग्रन्थ के पृष्ठ ९६ पर लिखा है-"सबसे महत्त्वपूर्ण सूचना यह है कि मथुरा के हुविष्क के वर्ष ४८ के एक अभिलेख में ब्रह्मदासिक कुल और उच्चनागरी शाखा के धर का उल्लेख है। लेख के आगे के अक्षरों के घिस जाने के कारण पढ़ा नहीं जा सका, हो सकता है। पूरा नाम धरसेन हो। क्योंकि Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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