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________________ अ०११/प्र०१ षट्खण्डागम / ५४५ "इस प्रकार साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों, आधारभूत ग्रन्थ, क्षेत्र तथा काल सभी दृष्टियों से धरसेन मूलसंघीय परम्परा से सम्बद्ध न होकर श्वेताम्बर या यापनीय परम्परा से अथवा उनकी पूर्वज उत्तरभारत की अविभक्त निर्ग्रन्थपरम्परा से ही सम्बद्ध प्रतीत होते हैं।" (पृ.९८)। यह कथन मान्य विद्वान् की अनिश्चयात्मक मनोदशा का उद्घाटन करता है। अर्थात् इतना ऊहापाह करने के बाद भी वे यह निश्चित नहीं कर पाते कि धरसेन श्वेताम्बर थे या यापनीय अथवा उनके पूर्वज? उनकी मनोदशा इन तीनों के बीच दोलायमान है। धरसेन उन्हें कभी श्वेताम्बर प्रतीत होते हैं, कभी यापनीय और कभी दोनों के पूर्वज, क्योंकि तीनों के पक्ष में जो साक्ष्य प्रस्तुत किये गये हैं, वे एकदूसरे को बाधित करते हैं। यह अनेक कोटियों का स्पर्श करनेवाला ज्ञान संशय कहलाता है-"विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयः, यथा स्थाणुर्वा पुरुषो वेति।" (न्यायदीपिका १/९)। यह संशय या अनिश्चय सूचित करता है कि मान्य विद्वान् के पास धरसेन को, न तो श्वेताम्बर सिद्ध करनेवाले प्रमाण मौजूद हैं, न यापनीय सिद्ध करनेवाले और न दोनों की मातृ-परम्परा का सिद्ध करनेवाले। धरसेन इनमें से किसी एक ही परम्परा के हो सकते हैं : श्वेताम्बरपरम्परा के, यापनीयपरम्परा के अथवा दोनों की मातृपरम्परा के। किन्तु मान्य विद्वान् उन्हें इनमें से किसी एक परम्परा का सिद्ध नहीं कर पाते। इससे स्पष्ट है कि धरसेन इन तीनों में से किसी भी परम्परा के नहीं थे। अतः यह इतिहासप्रसिद्ध तथ्य बाधित नहीं हो पाता कि वे दिगम्बर थे। ___मान्य विद्वान् के 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ का 'षट्खण्डागम' प्रकरण इसी प्रकार के परस्परविरुद्ध निष्कर्षों से भरा पड़ा है। उदाहरण द्रष्टव्य हैं १. दिगम्बर-नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली को वे यापनीय-नन्दिसंघ की पट्टावली मानकर कहते हैं कि उसमें धरसेन का उल्लेख होने से "यही सिद्ध होता है कि धरसेन यापनीयसंघ से सम्बद्ध रहे हैं।" (पृ.९३)। किन्तु आगे लिखते हैं कि धरसेन ने पुष्पदन्त और भूतबलि को उत्तरभारत की अविभक्त निर्ग्रन्थ (सचेलाचेल) परम्परा में निर्मित 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' का अध्ययन कराया था। "अतः धरसेन उत्तरभारतीय निर्ग्रन्थ (सचेलाचेल) संघ के ही आचार्य सिद्ध होते हैं।" (पृ.९७)। इन दोनों मतों में से कोई एक ही मत सत्य हो सकता है, किन्तु मान्य विद्वान् के पास इनमें से किसी एक को ही सत्य सिद्ध करनेवाला प्रमाण न होने से स्पष्ट है कि धरसेन न तो यापनीयसंघ से सम्बद्ध थे, न ही कपोलकल्पित उत्तरभारतीय सचेलाचेल निर्ग्रन्थ संघ से। इससे यह स्वतः सिद्ध होता है कि वे दिगम्बरपरम्परा से सम्बद्ध थे। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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