________________
५४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११ / प्र०१ ४. धरसेन ने पुष्पदन्त और भूतबलि को महाकर्मप्रकृतिप्राभूत का उपदेश दिया था, जिसके आधार पर उन्होंने षट्खण्डागम की रचना की थी। महाकर्मप्रकृतिप्राभृत उत्तरभारत की अविभक्त सचेलाचेल निर्ग्रन्थ परम्परा (श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा) में निर्मित हुआ था, अतः धरसेन इसी परम्परा के आचार्य सिद्ध होते हैं। (पृ.९७)।
५. षट्खण्डागम की अनेक गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं से समानता रखती हैं। यह साम्य तभी हो सकता है, जब दोनों किसी समान पूर्वपरम्परा से सम्बद्ध हों। और वह समान पूर्वपरम्परा उत्तरभारत की सचेलाचेल निर्ग्रन्थपरम्परा थी, जिससे श्वेताम्बरों और यापनीयों की उत्पत्ति हुई थी। इससे सिद्ध होता है कि षटखण्डागम यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। (पृ. १०३-१०४)।
६. धरसेन के महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के उपदेश के आधार पर पुष्पदन्त और भूतबलि ने षट्खण्डागम की रचना की थी। अतः धरसेन श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा के आचार्य थे और पुष्पदन्त तथा भूतबलि यापनीय-परम्परा के। (पृ.९७)।
७. षट्खण्डागम की रचना से सम्बन्धित आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त एवं भूतबलि वस्तुतः कल्पसूत्र की स्थविरावली में उल्लिखित वज्रसेन, पुसगिरि और भूतदिन ही हैं। अतः षट्खण्डागम की रचना श्वेताम्बर-यापनीय-मातृपरम्परा के आचार्यों ने की है। (पृ.९५-९६)।
८. षट्खण्डागम में 'मणुसिणी' (मनुष्यस्त्री) में संयत गुणस्थान बतलाये गये हैं। मणुसिणी का अर्थ केवल द्रव्यस्त्री है। उसे जो भावस्त्री का भी वाचक माना गया है, वह गलत है। इससे सिद्ध होता है कि ग्रन्थ स्त्रीमुक्ति-समर्थक परम्परा का है। यापनीय भी स्त्रीमुक्ति-समर्थक थे। अतः इसके कर्ता यापनीय ही होंगे। (पृ. १०११०२)। यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक की अनिश्चयात्मक मनोदशा
इन हेतुओं पर ध्यान देने से ज्ञात होता है कि इनमें महान् अन्तर्विरोध है। यापनीयपक्षधर विद्वान् ने धरसेन को यापनीय-परम्परा का भी आचार्य माना है, श्वेताम्बर परम्परा का भी और उसकी पूर्ववर्ती दोनों की अविभक्त मातृपरम्परा का भी। इससे उनकी अनिश्चयात्मक मनोदशा का पता चलता है। मान्य विद्वान् ने षट्खण्डागम के उपदेष्टा आचार्य धरसेन के सम्प्रदाय का निर्णय करने के लिए अपने ग्रन्थ जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय के नौ पृष्ठों (९०-९८) में विस्तृत ऊहापोह किया है और उसके बाद उपसंहार करते हुए लिखा है
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org