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________________ एकादश अध्याय षट्खण्डागम प्रथम प्रकरण यापनीयग्रन्थ मानने के पक्ष में प्रस्तुत हेतु ग्रन्थ में प्रतिपादित सिद्धान्तों और ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह सिद्ध है कि षट्खण्डागम दिगम्बर जैनाचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थ है। किन्तु यापनीयपक्षधर विद्वान् डॉ० सागरमल जी ने इसे यापनीय-आचार्यों द्वारा रचित सिद्ध करने की चेष्टा की है। इसके पक्ष में उन्होंने अपने ग्रन्थ जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय में निम्नलिखित हेतु प्रस्तुत किये हैं १. षट्खण्डागम के उपदेशक आचार्य धरसेन का नाम दिगम्बरपट्टावलियों में नहीं मिलता। यह सूचित करता है कि धरसेन दिगम्बर-परम्परा से भिन्न किसी अन्य परम्परा के आचार्य थे। (पृ.९२)। २. नन्दिसंघ की प्राकृतपट्टावली यापनीयसंघ की पट्टावली है। उसमें धरसेन के नाम का उल्लेख है। इससे सिद्ध होता है कि वे यापनीयसंघ से सम्बद्ध रहे हैं। (पृ.९३)। ३. धरसेन ने अपने पुष्पदन्त और भूतबलि शिष्यों के लिए 'जोणिपाहुड' (योनिप्राभृत) ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का सर्वाधिक उल्लेख श्वेताम्बरसाहित्य में है, इसलिए सम्भावना है कि इसके उपदेशक धरसेन उत्तरभारत की अविभक्त सचेलाचेल निर्ग्रन्थपरम्परा अर्थात् श्वेताम्बरों और यापनीयों की समान-मातृपरम्परा से सम्बद्ध रहे होंगे। (पृ.९३-९५)। ___'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक-महोदय ने जहाँ-जहाँ 'उत्तरभारत की निर्ग्रन्थ-परम्परा या संघ' अथवा 'उत्तरभारत की अविभक्त निर्ग्रन्थ-परम्परा या संघ' शब्दों का प्रयोग किया है, वहाँ 'निर्ग्रन्थ' शब्द से उन्हें 'दिगम्बर' अर्थ अभिप्रेत नहीं है, अपितु 'सचेलाचेल' अर्थ अभिप्रेत है, यह सर्वत्र स्मरणीय है। इसी परम्परा को उन्होंने श्वेताम्बर-यापनीय-मातृ-परम्परा माना है। इसका स्पष्टीकरण द्वितीय अध्याय के तृतीय और चतुर्थ प्रकरणों में किया जा चुका है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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