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________________ अ०११ / प्र०२ षट्खण्डागम / ५५३ की बात सर्वथा निर्मूल नहीं कही जा सकती, क्योंकि जैसा कि हम अन्यत्र बता रहे हैं, परिकर्म नामक ग्रन्थ के उल्लेख धवला और जयधवला में अनेक जगह पाये जाते हैं। प्रो० उपाध्ये ने कुन्दकुन्द के लिए ईस्वी का प्रारंभकाल, लगभग प्रथम दो शताब्दियों के भीतर का समय, अनुमान किया है, उससे भी षट्खण्डागम की रचना का समय उपर्युक्त ठीक जँचता है।" (पृष्ठ २७)। पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने भी धवलाटीका से परिकर्म ग्रन्थ के अनेक अंश उद्धृत कर सिद्ध किया है कि षट्खण्डागम पर परिकर्म नामक ग्रन्थ लिखा गया था । और वह कुन्दकुन्दकृत ही था । इसकी पुष्टि के लिए वे एक प्रमाण देते हैं। वे लिखते हैं— " वर्गणाखण्ड में स्पर्शानुयोगद्वार के सूत्र १८ की धवलाटीका में लिखा है" अपदेसं णेव इंदिए गेज्झं इदि परमाणूणं णिरवयवत्तं परियम्मे वृत्तमिदि णासंकणिज्जं, पदेसो णाम परमाणू सो जम्हि परमाणुम्हि समवेदभावेण णत्थि सो परमाणू अपदेसओ त्ति परियम्मे वृत्तो ।" (ष. ख. / पु. १३ / ५,३,१८/पृ.१८) । ? "परमाणु अप्रदेशी होता है और इन्द्रियों के द्वारा उसका ग्रहण नहीं होता, ऐसा परिकर्म में कहा है, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि प्रदेश का अर्थ परमाणु है । वह जिस परमाणु में समवेतभाव से नहीं है, वह परमाणु अप्रदेशी है, ऐसा परिकर्म में कहा है। " 'अपदेसं णेव इंदिए गेज्झं' किसी गाथा के पूर्वार्द्ध का अंश प्रतीत होता है । उसका 'णेव इंदिए गेज्झं' पद कुन्दकुन्द के नियमसार की २६ वीं गाथा में भी इसी प्रकार पाया जाता है और उस गाथा में परमाणु का ही स्वरूप बतलाया है अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदिए गेज्झं । जं दव्वं अविभागी तं परमाणुं वियाणीहि ॥ २६ ॥ " इस गाथा में णेव इंदिए गेज्झं पद से पहले अपदेसं पद नहीं हैं तथा परिकर्म के उक्त उद्धरण में अपदेसं णेव इंदिए गेज्झं से पहले का कुछ गाथांश छोड़ दिया गया है । किन्तु उस छूटे हुए पद का पता अन्यत्र से चल जाता है और उस पर से यही प्रतीत होता है कि उक्त गाथा कुन्दकुन्द के ही किसी ग्रन्थ की होनी चाहिए और वह ग्रन्थ परिकर्म हो सकता है । " १२ १२.“ आचार्य कुन्दकुन्दकृत परिकर्म नामक ग्रन्थ ''/ 'जैनसिद्धान्त - भास्कर / भाग २३ / किरण २ / पृष्ठ २१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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