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६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०२ में सम्मानास्पद स्थान प्राप्त किये। कतिपय भट्टारकों को राज्याश्रय प्राप्त हुआ। राजाओं द्वारा सम्मानित होने तथा राजगुरु बनने के परिणाम- स्वरूप भट्टारकों का सर्व-साधारण पर भी उत्तरोत्तर प्रभाव बढ़ने लगा। जन-सहयोग प्राप्त होने पर भट्टारकों ने बड़ेबड़े जिनमंदिरों के निर्माण, उच्च सैद्धान्तिक शिक्षा के शिक्षणकेन्द्रों के उद्घाटन, संचालन आदि अनेक उल्लेखनीय कार्य अपने हाथों में लिए। उन प्रशिक्षणकेन्द्रों से उच्च शिक्षाप्राप्त विद्वान् स्नातकों ने धर्म, समाज और साहित्य के क्षेत्र में अनेक उल्लेखनीय कार्य किये। अनुमानतः वीरनिर्वाण सं० १०१० के आसपास इक्ष्वाकु (सूर्यवंशी) कदम्बवंश के राजा शिवमृगेश वर्मा द्वारा अर्हत्प्रोक्त सद्धर्म के आचरण में सदा तत्पर श्वेताम्बरमहाश्रमण- संघ के उपभोग हेतु , निर्गन्थ-महाश्रमण-संघ के उपभोग के लिए तथा अर्हत्-शाला-परम-पुष्कल-स्थान-निवासी भगवान् अर्हत् महाजिनेन्द्र देवता के लिए दिये गये कालबंग नामक गाँव के दान से यह स्पष्टरूप से प्रकट होता है कि जिन श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं यापनीय संघों के आचार्यों, श्रमणों ने भूमिदान, ग्रामदान लेना प्रारम्भ कर दिया था, वे वस्तुतः भट्टारकपरम्परा के सूत्रधार थे। विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करनेवाले पंचमहाव्रतधारी, पूर्णरूपेण अपरिग्रही, श्रमणों के लिए इस प्रकार भूमिदान ग्रहण करना पूर्णतः शास्त्रविरुद्ध है। ऐसी स्थिति में श्वेताम्बर और दिगम्बर महाश्रमण संघ ने कदम्बनरेश शिवमृगेश वर्मा द्वारा श्रमणों अथवा श्रमणसंघ के उपभोग के लिए दिये गये दान को स्वीकार किया, इससे यही फलित होता है कि इस अभिलेख में यद्यपि भट्टारक शब्द का उल्लेख नहीं है, तथापि भट्टारकों के अनुरूप उनके ग्रामदानादि ग्रहण करने के आचरण से यही सिद्ध होता है कि वे श्वेताम्बर, दिगम्बर अथवा यापनीय अथवा कूर्चक-संघ वस्तुतः भट्टारकसंघ ही थे। उन संघों ने वीरनिर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम दशक तक अपने संघ के नाम से पूर्व 'भट्टारक' विशेषण भले ही नहीं लगाया हो, पर उनके आचार-विचार और कार्यकलाप भट्टारक-आचार-विचार-वृत्ति की ओर उन्मुख हो चुके थे।" (जै.ध. मौ. इ./ भा.३/ पृ.१३४-१३५)।
आचार्य हस्तीमल जी आगे लिखते हैं-"भट्टारकों की जो पट्टावलियाँ उपलब्ध हुई हैं, उनके कालक्रम पर शोधपूर्ण दृष्टि से विचार करने पर यह विश्वास करने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि वीरनिर्वाण की सातवीं शताब्दी में ही भट्टारकपरम्परा उस प्रथम स्वरूप में उदित हो चुकी थी, जिस प्रथम स्वरूप पर ऊपर विस्तार के साथ प्रकाश डाल दिया गया है। अधिक गहराई में न जाकर केवल 'इंडियन एण्टीक्यूरी' के आधार पर इतिहास के विद्वानों द्वारा कालक्रमानुसार तैयार की गयी भट्टारकपरम्परा के प्रमुख संघ 'नन्दिसंघ' की पट्टावलि के आचार्यों की नामावलि के शोधपूर्ण सूक्ष्मदृष्टि से अवलोकन-पर्यालोचन पर भी यही तथ्य प्रकाश में आता है कि संघ-भेद (वीर नि० सं० ६०९) के तीन चार दशक पश्चात् ही भट्टारक-परम्परा का एक धर्मसंघ के रूप में बीजारोपण हो चुका था। (जै. ध. मौ. इ. / भा.३ / पृ. १३६)।
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