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द्वितीय प्रकरण कुन्दकुन्द को भट्टारक सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत हेतु
भट्टारकपरम्परा के विकास के तीन रूपों की कल्पना
आचार्य हस्तीमल जी ने भट्टारकपरम्परा के विकास के तीन रूप बतलाये हैं। वे लिखते हैं कि वीर नि० सं० ६०९ के लगभग हुए संघभेद के थोड़े समय पश्चात् ही श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय, तीनों संघों के कुछ श्रमणों ने चैत्यों में रहना प्रारंभ कर दिया था। कुछ समय बाद ये भूमिदान और द्रव्यदान लेने लगे, तब भट्टारकपरम्परा शुरू हो गई। भट्टारकपरम्परा का यह प्रथम स्वरूप था। इसका अस्तित्व वीर नि० सं० ६४० से ८८० तक रहा। वीरनिर्वाण की नौवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में भट्टारकों के पीठ स्थापित होने लगे और उन्होंने राजाओं को प्रभावित कर राज्याश्रय प्राप्त करना भी शुरू कर दिया। मंत्र-तंत्र, ज्योतिष और औषधि आदि के प्रयोग से जनमानस को भी अपने अधीन किया जाने लगा। यह भट्टारकपरम्परा का द्वितीय स्वरूप था, जो ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी तक विद्यमान रहा। बारहवीं शती ई० में दिगम्बरसम्प्रदाय के भट्टारक न केवल वस्त्र धारण करने लगे, अपितु प्रचुर परिग्रह एवं मठों के स्वामी बनकर राजसी ठाठबाट से जीवन व्यतीत करने लगे, साथ ही श्रावकों के धार्मिक शासक भी बन गये। यह भट्टारकपरम्परा का तीसरा और अन्तिम रूप था।'
__ आचार्य हस्तीमल जी ने भट्टारकपरम्परा के इन तीन रूपों में से आचार्य कुन्दकुन्द को दूसरे रूप के अन्तर्गत पाँचवा पट्टाधीश माना है। इस रूप पर प्रकाश डालते हुए वे 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास" (भाग ३) में लिखते हैं
"वीर निर्वाण की नौवीं शताब्दी के अंतिम चरण में भट्टारकों ने अपने संघों को सुगठित करना प्रारम्भ किया। लोकसम्पर्क बढ़ाने के परिणामस्वरूप उनके संगठन सुदृढ़ होने लगे। मन्दिरों में नियत निवास कर भट्टारकों ने किशोरों को जैनसिद्धान्तों का शिक्षण देना प्रारम्भ किया। औषधि, मन्त्र-तन्त्र आदि के प्रयोग से जन-मानस पर अपना प्रभाव जमाना प्रारम्भ किया। भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु जन-मानस का झुकाव भट्टारकों की ओर होने लगा। अपने पाण्डित्य एवं चमत्कारपूर्ण कार्यों के बल पर कतिपय भट्टारकों ने राजाओं को भी अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने राजसभाओं
२. जैनधर्म का मौलिक इतिहास / भा. ३ / पृ. १२६-१२७ । ३. वही / पृ. १३४ एवं १४३ ।
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