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________________ ४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०१ किन्तु , द्वितीय अध्याय के द्वितीय प्रकरण (शीर्षक ७,८,९ एवं १०) में सिद्ध किया जा चुका है कि आचार्य कुन्दकुन्द के यापनीयसंघ में दीक्षित होने की कथा कपोलकल्पित है, अतः यह कहानी स्वतः मनगढन्त सिद्ध हो जाती है कि उनके यापनीयगुरु शिथिलाचारी थे, इसलिए कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में उनके नाम का उल्लेख नहीं किया। श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी ने कुन्दकुन्द के द्वारा अपने गुरु के नाम का उल्लेख न किये जाने का जो कारण बतलाया है, वह मुनि कल्याणविजय जी द्वारा बतलाये गये कारण से मिलता-जुलता है, तो भी उसमें बहुत फर्क है। आचार्य हस्तीमल जी ने यापनीय-आचार्य को कुन्दकुन्द का गुरु न बतलाकर दिगम्बरसम्प्रदाय में ही आविर्भूत भट्टारक-परम्परा के आचार्य जिनचन्द्र को उनका गुरु बतलाया है और कहा है कि जब कुन्दकुन्द को धर्म के तीर्थंकरप्रणीत वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हुआ, तब अपने गुरु के प्रति उनकी श्रद्धा समाप्त हो गई और वे भट्टारकसम्प्रदाय से अलग हो गये। इसी कारण उन्होंने अपने ग्रन्थों में उनका स्मरण नहीं किया। और यही कारण है कि भट्टारकपरम्परा के आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में कुन्दकुन्द की कहीं कोई चर्चा नहीं की। (देखिये, आगे द्वितीय प्रकरण)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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