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________________ अ०१०/प्र०९ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ५३९ तथा शिलालेख के पूर्वोद्धृत छठे पद्य के पहले निम्नलिखित पद्य है तस्याभवच्चरमचिज्जगदीश्वरस्य यो यौव्वराज्यपदसंश्रयतः प्रभूतः। श्रीगौतमो गणपतिर्भगवान्वरिष्ठः श्रेष्ठुरनुष्ठितनुतिर्मुनिभिस्स जीयात्॥ ५॥ इस पद्य को मिलाकर पढ़ने से यह अर्थ निकलता है कि श्री गौतम गणधर के अन्वय में अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु हुए। भद्रबाहु के शिष्य चन्द्रगुप्त हुए। चन्द्रगुप्त के वंश में जो मुनिसमूह (यतिरत्नमाला) उत्पन्न हुआ, उसमें कुन्दकुन्द सर्वश्रेष्ठ (अन्तर्मणिवत्) थे। उसी शिलालेख के ११ वें श्लोक में कहा गया है कि कुन्दकुन्द के वंश में उमास्वाति उत्पन्न हुए अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन॥ ११॥ इससे स्पष्ट होता है कि शिलालेख में जिन आचार्य को, जिन आचार्य के अन्वय या वंश में उत्पन्न कहा गया है, वे उनके साक्षात् शिष्य नहीं थे, अपितु परम्पराशिष्य थे तथा जिनको जिनका शिष्य कहा गया है, वे उनके साक्षात् शिष्य थे। जैसे अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु को गौतम गणधर का शिष्य नहीं कहा गया है, अपितु उनके अन्वय में उत्पन्न बतलाया गया है, इससे सूचित होता है कि अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु गौतम गणधर के साक्षात् शिष्य नहीं थे। यह सत्य भी है। किन्तु चन्द्रगुप्त को अन्तिम भद्रबाहु, श्रुतकेवली का शिष्य कहा गया है, इससे प्रकट होता है कि चन्द्रगुप्त उनके साक्षात् शिष्य थे। इसके बाद कुन्दकुन्द को न तो श्रुतकेवली भद्रबाहु का शिष्य कहा गया है, न चन्द्रगुप्त का, अपितु चन्द्रगुप्त के वंश में अनेक मुनिरत्नों के बीच उत्पन्न बतलाया गया है। इससे विज्ञापित होता है कि कुन्दकुन्द चन्द्रगुप्त के भी साक्षात् शिष्य नहीं थे, अपितु उनके शिष्यों के शिष्य थे। इस प्रकार उक्त शिलालेख के शब्दों से ही प्रकट होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के साक्षात् शिष्य नहीं थे, अपितु परम्पराशिष्य थे। यह शिलालेख शक सं. १३५५ (ई० सन् १४३३) का है। इसके लगभग ३०० वर्ष पहले (शक सं० १०८५-ई० सन् ११६३) के श्रवणबेल्गोल के शिलालेख क्र० ४० (६४) में भी ऐसा ही वर्णन है, अर्थात् अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु को गौतम गणधर की सन्तति में उत्पन्न, चन्द्रगुप्त को अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु का शिष्य तथा कुन्दकुन्द को चन्द्रगुप्त के अन्वय में उद्भूत प्ररूपित किया गया है। इस शिलालेख से भी इस बात की पुष्टि होती है कि कुन्दकुन्द अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के साक्षात् शिष्य नहीं थे, बल्कि परम्परा-शिष्य थे। अतः कुन्दकुन्द के अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के समकालीन होने की मान्यता निरस्त हो जाती है। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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