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५४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०९
पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार का मत पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने माना है कि बोधपाहुड की पूर्वोद्धृत ६१वीं गाथा में कुन्दकुन्द ने भद्रबाहु-द्वितीय का उल्लेख किया है और ६२वीं गाथा में भद्रबाहुप्रथम (श्रुतकेवली) का तथा भद्रबाहु-द्वितीय को अपना साक्षात् गुरु बतलाया है, जबकि श्रुतकेवली भद्रबाहु को गमकगुरु अर्थात् परम्परागुरु। (जै.सा.इ.वि.प्र./पृ.९३)। और उन्होंने पट्टावलियों के आधार पर भद्रबाहु का काल वीरनिर्वाण के बाद ५८९ से ६१२ वर्ष मानते हुए कुन्दकुन्द को वीरनिर्वाण के पश्चात् ६०८ से ६९२ वर्ष अर्थात् ई० सन् ८१ से १६५ के बीच स्थित माना है। (स्वामी समन्तभद्र / पृ.१८३-१८८)।
निरसन मुख्तार जी का यह मानना उचित नहीं है कि कुन्दकुन्द ने 'बोधपाहुड' की ६१वीं गाथा में द्वितीय भद्रबाहु का और ६२ वीं गाथा में श्रुतकेवली भद्रबाहु का उल्लेख किया है। वस्तुतः दोनों गाथाओं में श्रुतकेवली भद्रबाहु का ही उल्लेख है। प्रथम गाथा में उनके साथ अपना गुरुशिष्य-सम्बन्ध बतलाया है और द्वितीय में उनके श्रुतकेवली
और गमकगुरु इन दो विशेषणों का वर्णन करते हुए उनका जयकार किया है। यदि वे पहली गाथा में साक्षात् गुरु का और दूसरी में गमकगुरु का वर्णन करते तो साक्षात् गुरु का भी अलग से जयकार करते अथवा एक ही बार जयकार करना होता तो द्विवचन-क्रिया का प्रयोग करते। ऐसा संभव ही नहीं था कि वे गमकगुरु का तो जयघोष करते, किन्तु साक्षात् गुरु का न करते। यह तो साक्षात् गुरु की महान् अविनय होती। कुन्दकुन्द जैसे आचार्य ऐसी अविनय नहीं कर सकते थे। इससे स्पष्ट है कि उन दोनों गाथाओं में केवल श्रुतकेवली भद्रबाहु का ही उल्लेख है, दो भद्रबाहुओं का नहीं। अतः कुन्दकुन्द को द्वितीय भद्रबाहु का समकालीन मानना युक्तियुक्त नहीं है।
उपसंहार इन समस्त विरुद्ध मतों का निरसन हो जाने पर पूर्वोद्धृत प्रमाणों से सिद्ध होनेवाला यही मत अविरोधभाव से स्थापित होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए थे। अर्थात् वे ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध तक विद्यमान थे।
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