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५३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०९ "अर्थात् श्री महावीर स्वामी की परम्परा में एक भद्रबाहु हुए, जो कि सम्पूर्ण श्रुत के पारगामी हुए। उन्हीं का शिष्य चन्द्रगुप्त हुआ और उन्हीं के प्रसिद्ध वंश यानी संघरूप खानि में से उत्पन्न हुए मुनिरूप रत्नों की निर्दोष माला थी, यानी भद्रबाहु स्वामी का जो कुछ जितना भी शुद्ध मुनियों का संघ था, स्वामी कुन्दकुन्दाचार्य उन्हीं में के एक चमकीले रत्न थे। भद्रबाहु स्वामी के ही शिष्यों में से एक कुन्दकुन्द भी थे, ऐसा स्पष्ट है, क्योंकि यहाँ पर यतिरत्नमालाऽभूत् ऐसा पद है, जिसका अर्थ होता है-जो यतिरूप रत्नों की पंक्ति थी। तथा यदन्तर्मणिवत् अर्थात् 'उसी में बहुमूल्यमणि की तरह' ऐसा अर्थ होता है। अतः श्री कुन्दकुन्द भी स्वामी भद्रबाहु के साक्षात् शिष्यों में से थे, इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता।" ('स्वामी कुन्दकुन्द और सनातन जैन धर्म'/ पृष्ठ २०-२१)।
निरसन
डॉ० ए० एन० उपाध्ये का कथन है कि बोधपाहुड की उक्तं गाथाओं में कुन्दकुन्द ने श्रुतकेवली भद्रबाहु को अपना साक्षात् गुरु नहीं कहा, अपितु गमकगुरु अर्थात् परम्परागुरु कहा है। अतः उन्हें श्रुतकेवली भद्रबाहु का साक्षात् शिष्य नहीं माना जा सकता। दूसरी बात यह है कि यदि वे उनके साक्षात् शिष्य होते, तो अंगधारियों की सूची में उनका नाम होता, किन्तु नहीं है। इससे स्पष्ट है कि वे साक्षात् शिष्य नहीं थे। इसके अतिरिक्त जैनपरम्परा में ऐसी कोई किंवदन्ती या साहित्यिक उल्लेख भी नहीं है, जिससे उपर्युक्त बात की पुष्टि हो।३३४ ईसापूर्व चतुर्थ शताब्दी में कुन्दकुन्द का अस्तित्व मानने में एक बाधा और है, वह यह कि उस समय प्राकृतभाषा का वह रूप (मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा का द्वितीय स्तर) प्रचलित नहीं था, जिसमें कुन्दकुन्द के ग्रन्थ लिखे गये हैं, अपितु जिसमें अशोक के शिलालेख टंकित हैं, वह रूप (मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा का प्रथम स्तर) प्रचलित था। इन कारणों से कुन्दकुन्द श्रुतकेवली भद्रबाहु के साक्षात् शिष्य सिद्ध नहीं होते।
३३४. "But it may be asked why not take Kundakunda as the direct disciple of
Bhadra-bāhu Śrutakevalin and put him in the 3rd century B.C. There are various difficulties. Kundakunada, as, in that case, we might expect, does not figure in the lists of Angadhārins, the word śişya is not enough to lead us to that conclusion, because, as shown above, it could be used in the sense of a paramparā śişya, I am not aware of any piece of Jaina tradition, legendary or literary, which would give even the slightest support to put Kundakunda as the contemporary of Bhadrabāhu śrutakevalin, and the traditions, as they are available, go against this date of 3rd century B.C." (Pravacansāra, Introduction, p.16.)
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