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नवम प्रकरण अन्य विरुद्ध मतों का निरसन
ब्र० भूरामल जी का मत
आचार्य कुन्दकुन्द ने बोधपाहुड की पूर्वोद्धृत गाथाओं (६१-६२) में स्वयं को श्रुतकेवली भद्रबाहु का शिष्य बतलाया है और उन्हें गमकगुरु सम्बोधित कर उनका जयकार किया है। इस आधार पर कुछ विद्वान् उन्हें श्रुतकेवली भद्रबाहु का साक्षात् शिष्य मानने के पक्ष में हैं। पूज्य ब्र० भूरामल जी शास्त्री (दिगम्बर जैनाचार्य ज्ञानसागर जी) ने भी ऐसा ही माना है। इसके समर्थन में उन्होंने बोधपाहुड की पूर्वोद्धृत गाथाओं के अतिरिक्त श्रवणबेल्गोल के शिलालेख से प्रमाण उद्धृत किया है। उन्होंने लिखा है-"एन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन' में लिखा हुआ है कि सम्राट चन्द्रगुप्त वीरसंवत् २९० से पहले संसार से विरक्त होकर मैसूर प्रान्त में श्रवणबेलगोला पर जिनदीक्षा से दीक्षित हो कर स्वर्ग गये एवं स्वामी भद्रबाहु और मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त का गुरुशिष्यसम्बन्ध शिलालेख नं०४, शिलालेख नं०६, शिलालेख नं०७ से भी स्पष्ट है। और जब चन्द्रगुप्त के गुरु प्रथम भद्रबाहु हैं, तो वे ही श्री कुन्दकुन्द के भी गुरु होते हैं, यह बात शिलालेख नं० ५ या नं० १०८ से तो बिलकुल ही स्पष्ट हो जाती है
तदन्वये शुद्धमतिप्रतीते समग्रशीलामलरत्नजाले। अभूद्यतीन्द्रो भुवि भद्रबाहुः पयःपयोधाविव पूर्णचन्द्रः॥ ६ ॥ भद्रबाहुरग्रिमः समग्रबुद्धिसम्पदा
शुद्धसिद्धशासनं सुशब्दबन्धसुन्दरम्। इद्धवृत्तसिद्धिरत्र बद्धकर्मभित्तपो
वृद्धिवर्द्धितप्रकीर्तिरुद्दधे महर्द्धिकः॥ ७ ॥ यो भद्रबाहुः श्रुतकेवलीनां मुनीश्वराणामिह पश्चिमोऽपि। अपश्चिमोऽभूद्विदुषां विनेता सर्वश्रुतार्थप्रतिपादनेन॥ ८ ॥ तदीयशिष्योऽजनि चन्द्रगुप्तः समग्रशीलानतदेववृद्धः। विवेश यत्तीव्रतपःप्रभाव-प्रभूतकीर्तिर्भुवनान्तराणि॥ ९॥ तदीयवंशाकरतः प्रसिद्धादभूददोषा यतिरत्नमाला। बभौ यदन्तर्मणिवन्मुनीन्द्रस्सकुण्डकुन्दोदितचण्डदण्डः॥ १०॥
जै.शि.सं./मा. च. / भा.१ / ले.क्र.१०८ (२५८)।
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