________________
५३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र० ८
भी निरी कपोलकल्पना है। ये सभी एक नहीं, अपितु भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं, क्योंकि इनके सम्प्रदाय भिन्न-भिन्न हैं, इनकी मान्यताएँ भिन्न-भिन्न हैं और इनके समय भिन्नभिन्न है। इसलिए इन्हें एक मानकर कुन्दकुन्द की जो गुरुपरम्परा, तथा उनके द्वारा दिगम्बरमत के प्रवर्तन का जो घटना क्रम बतलाया है वह पूर्णतः मनगढ़ंत है । अतः यह तथ्य यथावत् प्रतिष्ठित रहता है कि दिगम्बरजैन - परम्परा भगवान् ऋषभदेव के युग से चली आ रही है। आचार्य कुन्दकुन्द इसी दिगम्बरजैन - परम्परा के अत्यन्त यशस्वी आचार्य थे। साहित्यिक और शिलालेखीय प्रमाणों से उनका समय ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध तक सिद्ध होता है ।
Jain Education International
❖❖❖
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org