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५३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०८ जब कि समन्तभद्र , मुनि को उभय ग्रन्थ का त्यागी होना अनिवार्य और आवश्यक बतलाते हैं, उस के बिना 'समाधि'-आत्मध्यान नहीं बन सकता है, क्योंकि पास में कोई ग्रन्थ होगा तो उसके संरक्षणादि में चित्त लगा रहने से आत्मध्यान की ओर मनोयोग नहीं हो सकता। इसीलिये वे कहते हैं कि
समाधितन्त्रस्तदुपोपपत्तये द्वयेन नैर्ग्रन्थ्यगुणेन चायुजत्॥ १६॥ स्व.स्तो.। अर्थात् हे जिनेन्द्र! आप आत्मध्यान में लीन हैं और उस आत्मध्यान की प्राप्ति के लिये ही बाह्य और आभ्यन्तर दोनों निर्ग्रन्थता-गुणों से युक्त हुए हैं।
२.१०.२.५. केवली के द्वारा तीर्थंकर को प्रणाम का विधान एवं निषेधनियुक्तिकार भद्रबाहु कहते हैं कि केवली तीर्थङ्कर को प्रणाम करते हैं और तीन प्रदक्षिणा देते हैं
केवलिणो तिउण जिणा तित्थपणामं च मग्गओ तस्स॥५५९॥ आव.नियु.। नियुक्तिकार के सामने जब प्रश्न आया कि केवली तो कृतकृत्य हो चुके, वे क्यों तीर्थङ्कर को प्रणाम और प्रदक्षिणा देंगे? तो वे इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहते हैं
तप्पुव्विया अरहया पूदृयपूता य विणयकम्मं च।
कयकिच्चो वि जह कहं कहए णमए तहा तित्थं ॥ ५६०॥ आव.नियु.। लेकिन समन्तभद्र ऐसा नहीं कहते। वे कहते हैं कि जो हितैषी हैं (अपना हित चाहते हैं), अभी जिनका पूरा हित सम्पन्न नहीं हुआ है और इसलिए जो अकृतकृत्य हैं, वे ही तीर्थङ्कर की स्तुति, वंदना, प्रणाम आदि करते हैं
१. भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः। स्वयम्भूस्तोत्र / ६५ । २. स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितैकतानाः। स्वयम्भूस्तोत्र /८५ । ३. स्वार्थनियतमनसः सुधियः प्रणमन्ति मन्त्रमुखरा महर्षयः। स्वयम्भूस्तोत्र / १२४ । ऐसी दशा में समन्तभद्र और भद्रबाहु दोनों एक नहीं हो सकते।
२.१०.२.६. पार्श्वनाथ पर उपसर्ग अमान्य एवं मान्य-भद्रबाहु आचारांगनियुक्ति में वर्द्धमान तीर्थङ्कर के तपःकर्म (तपश्चर्या) को तो सोपसर्ग प्रकट करते हैं, किन्तु शेष तीर्थङ्करों के, जिनमें पार्श्वनाथ भी हैं, तपःकर्म को निरुपसर्ग ही बतलाते हैं
सव्वेसिं तवोकम्मं निरुवसग्गं तु वणियं जिणाणं। नवरं तु वद्धमाणस्स सोवसग्गं मुणेयव्वं ॥ २७६ ॥
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