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________________ अ०१०/प्र०८ आचार्य कुन्दकुन्द का समय /५३१ २.१०.२.३. आभूषणों से जिनेन्द्रपूजा का विधान एवं निषेध-भद्रबाहु ने सूत्रकृताङ्ग-नियुक्ति (गा. ८४) में स्तुतिनिक्षेप के चार भेद करके आगन्तुक (ऊपर से परिचारित) आभूषणों के द्वारा जिनेन्द्र की स्तुति करने को द्रव्यस्तुति कहा है थुइणिक्खेवो चउहा आगंतुअभूषणेहिं दव्वथुई। भावे संताण गुणाण कित्तणा जे जहिं भणिया॥ ८४॥ यहाँ तीर्थंकरदेव के शरीर पर आभूषणों का विधान किया है और कहा गया है कि जो आगन्तुक भूषणों से स्तुति की जाती है वह द्रव्यस्तुति है और विद्यमान कथायोग्य गुणों का कीर्तन करना भावस्तुति है। लेकिन समन्तभद्र स्वयंभूस्तोत्र में इससे विरुद्ध ही कहते हैं और तीर्थङ्कर के शरीर की आभूषण, वेष और उपधि-रहितरूप से ही स्तुति करते हैं, जैसा कि पूर्वोल्लिखित वपुर्भूषावेषव्यवधिरहितं वाक्य से स्पष्ट है। इसी स्वयंभूस्तोत्र में एक दूसरी जगह भी तीर्थंकरों की आभूषणादि-रहितरूप से ही स्तुति की गई है और उनके रूप को भूषणादि-हीन प्रकट किया है भूषावेषायुधत्यागि विद्यादमदयापरम्। रूपमेव तवाचष्टे धीर दोषविनिग्रहम्॥ ९४॥ इसमें बतलाया है कि "बाह्य में आभूषणों, वेषों तथा आयुधों (अस्त्र-शस्त्रों) से रहित और आभ्यन्तर में विद्या तथा इन्द्रियनिग्रह में तत्पर आपका रूप ही आपके निर्दोषपने को जाहिर करता है। जो बाह्य में भूषणों, वेषों, और आयुधों से सहित हैं और आभ्यन्तर में ज्ञान तथा इन्द्रिय निग्रह में तत्पर नहीं हैं, वे अवश्य सदोष हैं।" यहाँ समन्तभद्र शरीर पर के भूषणादि को स्पष्टतया दोष बतला रहे हैं और उनसे विरहित शरीर को ही 'दोषों का विनिग्रहकर्ता', दोष-विजयी (निर्दोष) ठहराते हैं, अन्यथा नहीं। लेकिन भद्रबाहु , अपनी परम्परानुसार भूषणों के द्वारा उनकी स्तुति करना बतलाते हैं और उनके शरीर पर भूषणों का सद्भाव मानते हैं। यह मतभेद भी नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वयंभूस्तोत्र के कर्ता स्वामी समन्तभद्र के एक व्यक्ति होने में बाधक है। २.१०.२.४. मुनि को कम्बलदान का विधान एवं निषेध-भद्रबाहु , मुनि को 'कंबल'-रूप उपधि का दान करने का विधान करते हैं और उससे उसी भव से मोक्ष जाने का उल्लेख करते हैं। देखिये, आवश्यकनियुक्ति की यह गाथा तिल्लं तेगिच्छसुओ कंबलगं चंदणं च वाणियओ। दाउं अभिणिक्खंतो तेणेव भवेण अंतगओ॥ १७४॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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