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________________ अ०१०/प्र०८ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ५३३ श्वेताम्बर मान्यता है३२६ कि भगवान् महावीर कुण्डग्राम से निकलकर जब दिन अस्त होते कर्मार ग्राम पहुंचे, तो वहाँ उन पर बड़े भयानक और बीभत्स उपद्रव एवं उपसर्ग किये गये। आगमसूत्रों में ३२७ भगवान् महावीर पर हुये इन उपसर्गों का बहुत भयानक चित्र खींचा गया है। क्या तिर्यञ्च, क्या मनुष्य और क्या देव दानव, सबने उन पर महान् उपसर्ग किये। बारह वर्ष, छह महीने और १५ दिन तक इन उपसर्गों को सहते रहे, फिर उन्हें केवलज्ञान हुआ। भगवान् महावीर के उपसर्गों का इतना बीभत्स वर्णन करते हुए भी भगवान् पार्श्वनाथ के उपसर्गों का सूत्रों में या नियुक्ति में कोई उल्लेख तक नहीं है, जब कि समन्तभद्र इससे विरुद्ध ही वर्णन करते हैं। वे स्वयंभूस्तोत्र में पार्श्वनाथ के उन भयंकर उपसर्गों का स्पष्ट और विस्तृत विवेचन करते हैं, जो दिगम्बरपरम्परा के साहित्य में बहुलतया उपलब्ध हैं,३२८ यहाँ तक कि भगवान् पार्श्वनाथ की फणाविशिष्ट प्रतिमा भी उसी का प्रतीक है, किन्तु भगवान् महावीर के स्तवन में उन उपसर्गों का, जिनका श्वेताम्बरीय आगमसूत्रों में विस्तृत वर्णन है और नियुक्ति में जिनका सुस्पष्ट विधान एवं समर्थन भी है, कोई उल्लेख तक नहीं करते हैं। स्वयंभूस्तोत्र के उन श्लोकों को नीचे प्रकट किया जाता है, जिनमें भगवान् पार्श्वनाथ के भयानक उपसर्गों का स्पष्ट चित्रण किया गया है और इसलिए समन्तभद्र ने उनके ही तपःकर्म को सोपसर्ग बताया है, वर्द्धमान के नहीं तमालनीलैः सधनुस्तडिद्गुणैः प्रकीर्णभीमाशनिवायुवृष्टिभिः। बलाहकैर्वैरिवशैरुपद्रुतो महामना यो न चचाल योगतः॥ १३१॥ बृहत्फणामण्डलमण्डपेन यं स्फुरत्तडित्पिङ्गरुचोपसर्गिणम्। जुगूह नागो धरणो धराधरं विरागसन्ध्यातडिदम्बुदो यथा॥ १३२॥ स्वयोगनिस्त्रिशनिशातधारया निशात्य यो दुर्जयमोहविद्विषम्। अवापदार्हन्त्यमचिन्त्यमद्भुतं त्रिलोकपूजातिशयास्पदं पदम्॥ १३३॥ पाठक देखिये, समन्तभद्र ने भगवान् पार्श्वनाथ के ऊपर उनके पूर्वभव के वैरी कमठ के जीव के द्वारा किये गये उपसर्गों का कितने भयानक रूप में वर्णन किया ३२६. "तथा च कुण्डग्रामान्मुहूर्तशेषे दिवसे कर्मारग्राममाप, तत्र च भगवानित आरभ्य नानाविधा भिग्रहोपेतो घोरान् परीषहोपसर्गानधिसहमानो महासत्त्वतया म्लेच्छानप्युपशमं नयन् द्वादश वर्षाणि साधिकानि छद्मस्थो मौनव्रती तपश्चकार।" आचारांग/शीलांकाचार्य-टीका/पृ.२७३ । ३२७. देखिए , आचारांगसूत्र / पृ. २७३ से २८३, सूत्र ४६ से ९३ तक। ३२८. प्रसिद्ध धवलाटीकाकार वीरसेनाचार्य भी भगवान् पार्श्वनाथ का मंगलाभिवादन सकलोपसर्गविजयी रूप से करते हैं सयलोवसग्गणिवहा संवरणेणेव जस्स फिटुंति। फासस्स तस्स णमिउं फासणुयोअं परूवेमो॥ ष.खं./ पु.१३/ पृ.१। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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