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________________ अ०१०/प्र०८ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ५२९ यहाँ भद्रबाहु तीर्थंकरों के भी एक वस्त्ररूप उपधि३२४ रखने का उल्लेख करते हैं, अन्य साधुओं की तो बात ही क्या। पर इसके विपरीत समन्तभद्र क्या कहते हैं, इसे भी पाठक देखें अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ। ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं भवानेवात्याक्षीन च विकृतवेषोपधिरतः॥ ११९॥ स्व.स्तो.। यहाँ कहा गया है कि "हे नमि जिन! प्राणियों की अहिंसा (उनका घात नहीं करना प्रत्युत उनकी रक्षा करना) लोकविदित परमब्रह्म है (अहिंसा सर्वोत्कृष्ट आत्मा अर्थात् परमात्मा है)। वह अहिंसा उस साधुवर्ग में कदापि नहीं बन सकती है, जहाँ अणुमात्र भी आरंभ है। इसीलिए हे परम कारुणिक! आपने उस परमब्रह्म-स्वरूप अहिंसा की सिद्धि के लिये उभय प्रकार के ग्रन्थ का (परिग्रह का) त्याग किया और विकृत वेष-अस्वाभाविक वेष (भस्माच्छदनादि रूप में) तथा उपधि (वस्त्र या आभरणादि) में आसक्त नहीं हुए।" - जहाँ भद्रबाहु नियुक्ति में तीर्थंकरों के उभय परिग्रह को छोड़ देने पर भी उनके पीछे एक वस्त्र रखने का सुस्पष्ट विधान करते हैं, वहाँ समन्तभद्र उभय परिग्रह के छोड़ देने और अणुमात्र भी आरंभ का काम न रखने की व्यवस्था करते हैं। साथ ही नग्नवेष के विरुद्ध वस्त्रादि धारण को विकृतवेष और उपधि३२५ का धारण बतलाकर उसका निषेध करते हैं और उनकी यह मान्यता स्वयंभूस्तोत्र के ही निम्नवाक्य से और भी स्पष्ट हो जाती है वपुर्भूषा-वेष-व्यवधिर-हितं शान्तकरणं यतस्ते संचष्टे स्मर-शर-विषातङ्क-विजयम्। विना भीमैः शस्त्रैरदयहृदयामर्षविलयं ततस्त्वं निर्मोहः शरणमसि नः शान्तिनिलयः॥ १२०॥ स्व.स्तो.। ३२४. यहाँ आ. हरिभद्र की टीका द्रष्टव्य है-"सर्वेऽपि एकदूष्येण एकवस्त्रेण निर्गताः जिन वराश्चतुर्विंशति:--- किं पुनः तन्मतानुसारिणो न सोपधयः? ततश्च य उपधिरासेवितो भगवद्भिः स साक्षादेवोक्तः य पुनर्विनयेभ्यः स्थविरकल्पिकादिभेदभिन्नेभ्योऽनुज्ञातः स खलु अपि शब्दात् ज्ञेय इति।" आवश्यकनियुक्ति / गा.२२७ । ३२५. भद्रबाहु को भी 'उपधि' का अर्थ वस्त्र विवक्षित है। यथा-"अप्पत्तेच्चिय वासं सव्वं उवहि धुवंति जयणाए।" पिंडनियुक्ति /२६ । "पत्ते धोवण काले उवहिं वीसामए साहू।" पिंडनियुक्ति । १८ । "वासासु अधोवणे दोसा।" पिंडनियुक्ति । २५ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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