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________________ ५२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०८ इन दोनों जगह स्पष्टतया कहा गया है कि "हे जिनेन्द्र! आपका ज्ञान एक साथ समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है।" "आपने समस्त चराचर जगत् को हस्तामलकवत् (हाथ में रक्खे हुए आँवले की तरह) युगपत्-(एक साथ) जाना है और यह जानना आपका सदा अर्थात् नित्य और निरन्तर है। ऐसा कोई भी समय नहीं, जब आप सब पदार्थों को युगपत् न जानते हों।" पाठक देखेंगे कि यहाँ समन्तभद्र ने युगपत्पक्ष का जोरों से समर्थन किया है। उनके युगपत्, अखिलं च सदा और तलामलकवत् सब ही पद सार्थक और खास महत्त्व के हैं। उनका युगपत्पक्ष का समर्थन करनेवाला 'सदा' शब्द तो खास तौर से ध्यान देने योग्य है, जो प्रकृत विषय की प्रामाणिकता की दृष्टि से और ऐतिहासिक दृष्टि से अपना खास महत्त्व रखता है और जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वह स्पष्टतया केवली के क्रमिक ज्ञान-दर्शन का विरोध करता है और यौगपद्यवाद का प्रबल समर्थन करता है। क्योंकि ज्ञान-दर्शन की क्रमिक दशा में ज्ञान के समय दर्शन और दर्शन के समय ज्ञान नहीं रहेगा। और इसलिये कोई भी ज्ञान सदाकालीन शाश्वत नहीं बन सकेगा। श्रद्धेय पं० सुखलाल जी ने भी 'ज्ञान-बिन्दु' की प्रस्तावना (पृ० ५५) में केवल आप्तमीमांसा के उक्त उल्लेख के आधार पर समन्तभद्र को एकमात्र यौगपद्यपक्ष का समर्थक बतलाया है। इस मान्यताभेद से नियुक्तिकार भद्रबाहु और आप्तमीमांसाकार समन्तभद्र में सहज ही पार्थक्य स्थापित हो जाता है। यदि भद्रबाहु और समन्तभद्र एक होते तो नियुक्ति में क्रमवाद का स्थापन और युगपद्वाद का खण्डन तथा आप्तमीमांसा में युगपद्वाद का कथन और फलितरूपेण क्रमिकवाद का खण्डन दृष्टिगोचर न होता। अतः स्पष्ट है कि समन्तभद्र और नियुक्तिकार भद्रबाहु अभिन्न नहीं हैं, भिन्नभिन्न व्यक्ति हैं। २.१०.२.२. तीर्थंकरों की सवस्त्र प्रव्रज्या और निर्वस्त्र प्रव्रज्या नियुक्तिकार भद्रबाहु ने श्वेताम्बरीय आगमों की मान्यतानुसार चौबीसों तीर्थंकरों को एक वस्त्र से प्रव्रजित होना माना है, जैसा कि उनकी निम्न गाथा से स्पष्ट है सव्वेऽवि एगदूसेण णिग्गया जिणवरा चउव्वीसं। न य नाम अण्णलिंगे नो गिहिलिंगे कुलिंगे वा॥ २२७॥ आव.निर्यु.। इस गाथा में बतलाया गया है कि सभी ऋषभ आदि महावीर पर्यन्त चौबीसों तीर्थंकर एक दूष्य (एक वस्त्र) के साथ दीक्षित हुए। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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