SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 580
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र०८ होती हैं, जिनमें 'केई' शब्द के द्वारा सर्वप्रथम युगपत्पक्ष का और 'अण्णे' शब्द के द्वारा पश्चात् क्रमपक्ष और अन्त में दूसरे 'अण्णे' शब्द से अभिन्नपक्ष का उल्लेख किया है, जो उपयोगवाद के विकासक्रम को ला देता है और उमास्वाति, निर्युक्तिकार भद्रबाहु तथा सिद्धसेन दिवाकर के समय का भी ठीक निर्णय करने में खास सहायता करता है। यहाँ एक बात और खास ध्यान देने योग्य है और वह यह कि दिगम्बरपरम्परा में अकलंक के पहिले किसी दिगम्बर आचार्य ने क्रमपक्ष या अभेदपक्ष का खण्डन नहीं किया, केवल युगपत्पक्ष का ही निर्देश किया है । ३१४ पूज्यपाद के बाद अकलंक ही एक ऐसे हुए हैं, जिन्होंने इतर पक्षों-क्रमपक्ष ३१५ और अभेदपक्ष ३१६ का स्पष्टतया खंडन किया और युगपत्पक्ष का सयुक्तिक समर्थन किया है । ३१७ इससे यह फलित होता है कि पूज्यपाद के बाद और अकलंक के पहले क्रमपक्ष और अभेदपक्ष पैदा हुये तथा नियुक्तिकार भद्रबाहु और जिनभद्रगणि- क्षमाश्रमण तथा अकलंक का मध्यकाल अभेदपक्ष के स्थापन और इसके प्रतिष्ठाता (सिद्धसेन) का होना चाहिये । ३१८ इसका स्पष्ट खुलासा इस प्रकार है श्वेताम्बरपरम्परा में केवली के केवलज्ञान और केवलदर्शनोपयोग के सम्बन्ध में तीन पक्ष हैं - १. क्रमपक्ष, २. युगपत्पक्ष और ३. अभेदपक्ष । कुछ आचार्य ऐसे हैं जो केवली के ज्ञान और दर्शनोपयोग को क्रमिक मानते हैं और कुछ आचार्य ऐसे हैं जो दोनों को अभिन्न (एक) मानते हैं । ३१९ किन्तु दिगम्बरसम्प्रदाय में केवल एक ही पक्ष है और वह है यौगपद्य का । आचार्य भूतबलि के षट्खण्डागम से लेकर अब तक के उपलब्ध समस्त दिगम्बर वाड्मय में यौगपद्य-पक्ष ही एक स्वर से स्वीकार किया गया है, ३२० प्रत्युत अकलंकदेव ३१४. इस बात को श्वेताम्बर विद्वान् श्रद्धेय पण्डित सुखलाल जी भी स्वीकार करते हैं। देखिए, 'ज्ञानबिन्दु' / प्रस्ता/ पृ. ५५ / ३१५. देखिए, अष्टशती / कारिका १०१ की वृत्ति और तत्त्वार्थराजवार्तिक ६ / १३/८ ३१६. देखिए तत्त्वार्थराजवार्तिक १० / १४-१६ । ३१७. देखिए, वही ६ / १० / १२ । ३१८. “ श्रद्धेय पं० सुखलाल जी ने जो सिद्धसेन से भी पहले अभेदपक्ष की सम्भावना की है ( ज्ञानबिन्दु / प्रस्ता. / पृ. ६०) वह विचारणीय है, क्योंकि उसमें कितनी ही आपत्तियाँ उपस्थित होती हैं।" लेखक । ३१९. देखिए, फुटनोट ३१३ में उल्लिखित विशेषणवती की १८४, १८५ नम्बर की गाथाएँ । ३२०. यथा क- 'सयं भयवं उप्पण्णणाणदरिसी स 44 जाणदि Jain Education International सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं पस्सदि । " षट्खण्डागम / पु. १३ / ५,५,८२/पृ.३४६ / For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy