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________________ अ०१०/प्र०८ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ५२५ ____नाणंमि दंसणंमि अ इत्तो एगयरयमि उवजुत्ता। सव्वस्स केवलिस्सा३०९ जुगवं दो नत्थि उवओगा॥ इसमें कहा गया है कि 'सभी केवलियों के, चाहे वे तीर्थंकर केवली हों या सामान्य केवली, ज्ञान और दर्शन में से कोई एक ही उपयोग एक ही समय में होता है। दो उपयोग एक साथ नहीं होते।' ___ आवश्यकनियुक्ति की यथाप्रकरण और यथास्थान पर स्थित यह गाथा ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्त्व की है और कितनी ही उलझनों को सुलझाती है। इसमें तीन बातें प्रकाश में आती हैं-एक तो यह कि भद्रबाहु-द्वितीय केवली को ज्ञान और दर्शन उपयोग में से किसी एक में ही एक समय में उपयुक्त बतला कर क्रमपक्ष का सर्वप्रथम समर्थन एवं प्रस्थापन करते हैं। और इसलिए वे ही क्रमपक्ष के प्रस्थापक३१० एवं प्रधान पुरस्कर्ता ३११ हैं। दूसरी बात यह कि भद्रबाहु के पहिले एक ही मान्यता थी और वह प्रधानतया युगपत्-पक्ष की मान्यता थी, जो दिगम्बरपरम्परा के भूतबलि, कुन्दकुन्द आदि प्राचीन आचार्यों के वाङ्मय में और श्वेताम्बर भगवतीसूत्र (५/४) तथा तत्त्वार्थभाष्य (१/३१) में उपलब्ध है और जिसका कि उन्होंने (भद्रबाहु ने) इसी गाथा के उत्तरार्ध में 'जुगवं दो नत्थि उवओगा' कहकर खंडन किया है। और तीसरी बात यह कि नियुक्तिकार भद्रबाहु के पहले या उनके समय में केवली के उपयोगद्वय का अभेदपक्ष नहीं था। अन्यथा क्रमपक्ष के समर्थन एवं स्थापन और युगपत्-पक्ष के खण्डन के साथ ही साथ अभेदपक्ष का भी वे अवश्य खण्डन करते। अतः अभेदपक्ष उनके पीछे प्रस्थापित हुआ फलित होता है और जिसके प्रस्थापक सिद्धसेन दिवाकर हुए जान पड़ते हैं। यही कारण है कि सिद्धसेन क्रमपक्ष और युगपत्पक्ष दोनों का सन्मतिसूत्र में जोरों से खण्डन करते हैं और अभेदवाद को प्रस्थापित करते है।३१२ हमारे इस कथन में जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण की विशेषणचतीगत वे दोनों गाथाएँ ३१३भी सहायक ३०९. 'केवलिस्स वि' पाठान्तरम्। ३१०. “यदि प्रज्ञापनासूत्र पद ३०, सूत्र १३४ को क्रमपक्षपरक माना जाये, तो सूत्रकार क्रमपक्ष के प्रस्थापक और नियुक्तिकार भद्रबाहु उसके सर्वप्रथम समर्थक माने जायेंगे।" लेखक। ३११. "आचार्य हरिभद्र, अभयदेव और उपाध्याय यशोविजय ने क्रमपक्ष का पुरस्कर्ता जिन भद्रगणि-क्षमाश्रमण को बतलाया है, पर जिनभद्रगणी जब स्वयं 'अण्णे' कहकर क्रमपक्ष के मानने-वाले अपने किसी पूर्ववर्ती का उल्लेख करते हैं (देखिए , विशेषणवती, गाथा १८४), तब वे स्वयं क्रमपक्ष के पुरस्कर्ता कैसे हो सकते हैं?" लेखक। ३१२. देखिए , सन्मतिसूत्र २/४ से २/३१ तक। ३१३. केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ व केवली णियमा। अण्णे एगंतरियं इच्छंति सुओवएसेणं ॥ १८४॥ अण्णे ण चेव वीसुं दंसणमिच्छंति जिणवरिंदस्स। जं चि य केवलणाणं तं चि य से दरिसणं विंति॥ १८५॥ विशेषणवती। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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