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________________ ५२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०८ प्रस्तुत विचार यह है कि आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्र और दश नियुक्तियों के कर्ता भद्रबाहु-द्वितीय क्या अभिन्न हैं, एक ही व्यक्ति हैं? इसका ठीक निर्णय हम जितना अधिक इन दोनों ही आचार्यों के साहित्य के आभ्यन्तर परीक्षण द्वारा कर सकते हैं, उतना दूसरे भिन्न-कालीन उल्लेख-वाक्यों, बाह्य-साधनों अथवा घटनाओं की कल्पना पर से नहीं कर सकते। इसी को न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जी के शब्दों में यों कह सकते हैं कि "दूसरे समकालीन लेखकों के द्वारा लिखी गई विश्वस्त सामग्री के अभाव में ग्रन्थों के आन्तरिक परीक्षण को अधिक महत्त्व देना सत्य के अधिक निकट पहुँचने का प्रशस्त मार्ग है। आन्तरिक परीक्षण के सिवाय अन्य बाह्य साधनों का उपयोग तो खींचतान करके दोनों ओर किया जा सकता है तथा लोग करते भी हैं।"३०७ २.१०.२ नियुक्तिकार भद्रबाहु और समन्तभद्र में सैद्धान्तिक मतभेद __ अतः इस निर्णय के लिये भद्रबाहु-द्वितीय की नियुक्तियों और स्वामी समन्तभद्र की आप्तमीमांसादि कृतियों का अन्तःपरीक्षण होना आवश्यक है। समन्तभद्र की कृतियों में प्रोफेसर साहब रत्नकरण्डश्रावकाचार को नहीं मानते, परन्तु मुख्तार श्री पं० जुगलकिशोर जी के पत्र के उत्तर में उन्होंने आप्तमीमांसा के साथ युक्त्यनुशासन और स्वयम्भूस्तोत्र को भी समन्तभद्र की कृतिरूप से स्वीकार कर लिया है। ऐसी हालत में समन्तभद्र के इन तीनों ग्रन्थों के साथ नियुक्तियों३०८ का अन्त:परीक्षण करके मैंने जो कुछ अनुसन्धान एवं निर्णय किया है, उसे मैं यहाँ पाठकों के सामने रखता हूँ, जिससे पाठक और मान्य प्रो० साहब इन दोनों आचार्यों का अपना-अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व और विभिन्नसमयवर्तित्व सहज में ही जान सकेंगे कि दोनों ही आचार्य भिन्न-भिन्न परम्पराओं में हुए हैं २.१०.२.१. क्रमवाद और युगपद्वाद-नियुक्तिकार भद्रबाहु केवली भगवान् के केवलज्ञान और केवलदर्शन का युगपत् (एक साथ) सद्भाव नहीं मानते, कहते हैं कि केवली के केवलदर्शन होने पर केवलज्ञान और केवलज्ञान होने पर केवलदर्शन नहीं होता, क्योंकि दो उपयोग एक साथ नहीं बनते, जैसा कि उनकी आवश्यकनियुक्ति की निम्न गाथा (नं० ९७९) से स्पष्ट है ३०७. देखिए , अकलंक-ग्रन्थत्रय की प्रस्तावना / पृ. १४। ३०८. "भद्रबाहुकर्तृक दश नियुक्तियाँ प्रसिद्ध हैं और ये श्वेताम्बर-परम्परा में प्रसिद्ध आचारांगसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, आवश्यकसूत्र आदि आगमसूत्रों पर लिखी गई हैं। उनमें से सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति और ऋषिभाषित-नियुक्ति अनुपलब्ध हैं। ओघनियुक्ति और संसक्तनियुक्ति वीर सेवामन्दिर में नहीं हैं। बाकी ६ नियुक्तियों का ही अन्तःपरीक्षण किया गया है।" लेखक। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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