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अ०१० / प्र०८
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ५२३ सम्बन्ध है। आप्तपरीक्षा के स्वामिमीमांसितं तत् उल्लेख में स्पष्टतः मीमांसित शब्द का प्रयोग है, जिससे उनके विज्ञ पाठक भ्रम में नहीं पड़ सकते और तुरन्त जान सकते हैं कि आप्त की मीमांसा स्वामी ने - समन्तभद्र ने की है, उन्हीं का विद्यानन्द ने उल्लेख किया है। इसी तरह वादिराज सूरि के स्वामिनश्चरितं उल्लेख में भी देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदर्श्यते इन आगे के वाक्यों द्वारा 'देवागम' (आप्तमीमांसा) का स्पष्ट निर्देश है, अतः यहाँ भी उनके पाठक भ्रम में नहीं पड़ सकते, श्लोक के पूर्वार्ध में प्रयुक्त 'स्वामी' पद से फौरन देवागम के कर्ता समन्तभद्र का ज्ञान कर लेंगे।
तीसरी बात यह है कि 'साहित्य में एकान्ततः ' स्वामी पद का प्रयोग समन्तभद्र के लिये ही नहीं हुआ है, विद्यानन्द के पूर्ववर्ती अकलंकदेव ने पात्रकेसरी - स्वामी या सीमंधर-स्वामी के लिये भी उसका प्रयोग किया है । ३०६ श्वेताम्बर - साहित्य में सुधर्म - गणधर के लिये स्वामी पद का बहुत कुछ प्रयोग पाया जाता है। और भी कितने ही आचार्य स्वामी पद के साथ उल्लिखित मिलते हैं। स्वयं प्रोफेसर साहब ने आवश्यकसूत्रचूर्णि और श्वेताम्बरपट्टावली में उल्लिखित 'वज्रस्वामी' नाम के एक आचार्य का उल्लेख किया है और उन्हें भी द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के कारण दक्षिण को विहार करनेवाला लिखा है। यदि द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी करके दक्षिण को विहार करने और स्वामी नामक उपाधि के कारण वज्रस्वामी भी भद्रबाहु - द्वितीय और समन्तभद्र से भिन्न व्यक्ति नहीं हैं, तो फिर इन वज्रस्वामी की तीसरी पीढ़ी में होनेवाले उन समन्तभद्र का क्या बनेगा, जिन्हें प्रो० साहब ने पट्टावली के कथन पर आपत्ति न करके वज्रस्वामी का प्रपौत्र - शिष्य स्वीकार किया है और समन्तभद्र तथा सामन्तभद्र को एक भी बतलाया है? क्या प्रपितामह ( पड़बाबा) और प्रपौत्र (पड़पोता ) भी एक हो सकते हैं? अथवा क्या प्रपौत्र की भविष्यवाणी पर ही प्रपितामह ने दक्षिण देश को विहार किया था? इस पर प्रोफेसर सा० ने शायद ध्यान नहीं दिया । अस्तु, यदि वज्रस्वामी भद्रबाहु-द्वितीय और समन्तभद्र से भिन्न हैं और स्वामी पद का प्रयोग पात्रकेसरी जैसे दूसरे आचार्यों के लिये भी होता रहा है, तो स्वामी उपाधि का 'एकान्ततः समन्तभद्र के लिये ही ' प्रयुक्त होना अव्यभिचरित तथा अभ्रान्त नहीं कहा जा सकता और इसलिये 'स्वामी' उपाधि के आधार पर भद्रबाहु - द्वितीय और समन्तभद्र को एक सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस प्रकार से सिद्धि का प्रयत्न बहुत कुछ आपत्ति के योग्य है।
इसमें सन्देह नहीं कि एक नाम के अनेक व्यक्ति भी सम्भव हैं और अनेक नामों-वाला एक व्यक्ति भी हो सकता है । इसी बुनियाद पर समन्तभद्र के भी अनेक नाम हो सकते हैं और समन्तभद्र नाम के अनेक व्यक्ति भी सम्भव हैं। परन्तु, यहाँ
३०६. देखिए, सिद्धिविनिश्चय का ' हेतुलक्षणसिद्धि' नाम का छठा प्रस्ताव, लिखित प्रति, पृ. ३०० ।
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