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५२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०८ ट्रैक्ट के रूप में प्रकाशित किया है। इस निबन्ध में खोजपूर्वक जो निष्कर्ष निकाले गये, और जो सभी विचारणीय हैं, उनमें एक निष्कर्ष यह भी है कि श्वेताम्बरआगमों की १० नियुक्तियों के कर्ता भद्रबाहु-द्वितीय और आप्तमीमांसा (देवागम) के कर्ता स्वामी समन्तभद्र दोनों एक ही व्यक्ति हैं, भिन्न-भिन्न नहीं, और यही मेरे आज के इस लेख का विचारणीय विषय है। इस निष्कर्ष का प्रधान आधार है, श्रवणबेलगोल के प्रथम शिलालेख में द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी करनेवाले भद्रबाहु-द्वितीय के लिये 'स्वामी' उपाधि का प्रयोग, और उधर समन्तभद्र के लिये अनेक आचार्यवाक्यों द्वारा 'स्वामी' पदवी का रूढ़ होना। चुनांचे प्रोफेसर साहब लिखते हैं
"दूसरा (द्वितीय-भद्रबाहु द्वारा द्वादश-वर्षीय दुर्भिक्ष की भविष्यवाणी के अतिरिक्त)३०३ महत्त्वपूर्ण संकेत इस शिलालेख से यह प्राप्त होता है कि भद्रबाहु की उपाधि 'स्वामी' थी, जो कि साहित्य में प्रायः एकान्ततः समन्तभद्र के लिये ही प्रयुक्त हुई है। यथार्थतः बड़े-बड़े लेखकों जैसे विद्यानन्द३०४ और वादिराज३०५ सूरि ने तो उनका उल्लेख, नाम न देकर केवल उनकी इस उपाधि से ही किया है और यह वे तभी कर सकते थे, जब कि उन्हें विश्वास था कि उस उपाधि से उनके पाठक केवल समन्तभद्र को ही समझेंगे, अन्य किसी आचार्य को नहीं। इस प्रमाण को उपर्युक्त अन्य सब बातों के साथ मिलाने से यह प्रायः निस्सन्देहरूप से सिद्ध हो जाता है कि समन्तभद्र और भद्रबाहु-द्वितीय एक ही व्यक्ति हैं।" २.१०.१. 'स्वामी' उपाधि का प्रयोग पात्रकेसरी आदि के लिए भी
यह आधार-प्रमाण कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता, क्योंकि 'स्वामी' उपाधि भद्रबाहु और समंतभद्र के एक होने की गारंटी नहीं है। दो व्यक्ति होकर भी दोनों 'स्वामी' उपाधि से भूषित हो सकते हैं। एम० ए० उपाधिधारी अनेक हो सकते हैं। 'व्याकरणाचार्य' भी एकाधिक मिल सकते हैं। 'प्रेमी' और 'शशि' भी अनेक व्यक्तियों की उपाधि या नाम देखे जाते हैं। फिर भी इनसे अपने-अपने प्रसंग पर अमुक-अमुक का ही बोध होता है। अतः किसी प्रसंग में यदि विद्यानंद और वादिराज ने मात्र 'स्वामी' पद का प्रयोग किया है और उससे उन्हें स्वामी समंतभद्र विवक्षित हैं, तो इससे भद्रबाहु
और समन्तभद्र कैसे एक हो गये? दूसरी बात यह है कि विद्यानन्द ने जहाँ भी 'स्वामी' पद का प्रयोग समन्तभद्र के लिये किया है, वहाँ आप्तमीमांसा (देवागम) का स्पष्ट
३०३. यह ब्रैकेट के भीतर का आशय-वाक्य लेखक का है। ३०४. 'स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितप्रथुपथं स्वामिमीमांसितं तत्।' आप्तपरीक्षा। ३०५. स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम्।
देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदर्श्यते॥ पार्श्वनाथचरित ।
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